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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
समस्त प्राणियों में न्यूनाधिक मात्रा में विद्यमान रहती है । यहाँ तक कि जैनदर्शन की यह धारणा है कि निगोद के जीव में भी कुछ अंश में चेतना (ज्ञान- दर्शन) रहती है । लेकिन तीसरा आनन्द नामक गुण प्रत्येक व्यक्ति में नहीं पाया जाता । कहने का तात्पर्य यह है कि 'सत्' और 'चित्' तो मानव के पास व्यक्त रूप में है किन्तु आनन्द उसे व्यक्त रूप में दृष्टिगत नहीं होता । निश्चय की दृष्टि से आत्मा आनन्दमय अवश्य है । आनन्दघन ने कहा है – “निश्चै एक आनन्दो रे । " " किन्तु वर्तमान में वह अव्यक्त है, उसकी कमी मनुष्य को महसूस होती है; उसके जीवन में तनाव या अशान्ति है। वह अपनी आकुलता - व्याकुलता या विक्षोभ को मिटाकर अनन्त आनन्द पाना चाहता है, शान्ति चाहता है, सुख चाहता है । यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि सुख (आनन्द) को मनोविज्ञान में मानव की मूलप्रवृत्ति माना गया है । मनुष्य का एक मात्र लक्ष्य यही है कि उसे आनन्द कैसे प्राप्त हो ? इसका कारण यह है कि उसके पास सत्ता व चेतना तो है, मात्र आनन्द नहीं है । इसीलिए वह उसकी खोज में यत्रतत्र भटकता है | आनन्द कहाँ मिलेगा अथवा आनन्द कहाँ है ? उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? आदि प्रश्नों का उत्तर उपाध्याय यशोविजय बड़े ही सुन्दर एवं मार्मिक ढंग से देते हैं
आनन्द को हम दिखलाओ,
कहाँ ढूँढ़त तू मूरख पंक्षी, आनन्द हाट न बिकाओ ॥
अरे मूर्ख पक्षी (मूर्ख मानव ) ! आनन्द को तू बाहर कहाँ ढूँढ़ रहा है ? वह तो अन्तरात्मा में ही है । जिस आनन्द को तू पाना चाहता है वह हाट-बाजार में बिकनेवाली वस्तु नहीं है । वस्तुत: यह आनन्द प्रत्येक स्थान पर उपलब्ध नहीं होता, आत्मा का यह आनन्द तो आनन्द स्वरूप आत्मा में ही समाया हुआ है । इस सम्बन्ध में उपाध्याय यशोविजय का कथन है :
आनन्दठोर ठोर नहीं पाया, आनन्द आनन्द में समाया । ३
आनन्दघन ग्रन्थावली, वासुपूज्य जिन स्तवन ।
१.
२. अष्टपदी - उपाध्याय यशोविजय, पद ५ ।
उद्धृत, आनन्दघन ग्रन्थावली, पृ० १२ ।
३. वही, पद ४ ।