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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
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पयइ ठिई अणुभाग प्रदेशथीरे, मूल उत्तर बहुभेद ।
घाति-अघाति बंधोदयोदीरणा, सत्ता कर्म-विच्छेद ।।' वस्तुतः इन पंक्तियों में उन्होंने कर्म-सिद्धान्त के मूल तत्त्वों को सूत्ररूप में प्रस्तुतकर गागर में सागर भरने का प्रयत्न किया है। वे जैन-शास्त्र सम्मत बन्धन की चार प्रक्रियाओं को बताते हुए कहते हैं कि बन्ध के चार भेद हैं
१. प्रकृति-बन्ध, २. स्थिति-बन्ध, ३. अनुभाग-बन्ध, और
४. प्रदेश-बन्ध । प्रकृति-बन्ध
प्रकृति अर्थात् स्वभाव-स्वभाव प्रकृतिः प्रोक्तः । किस कर्म का कौनसा स्वभाव है, यह निर्धारण प्रकृति-बन्ध करता है। जैसे, ज्ञानावरणीय कर्म का स्वभाव आत्मा के ज्ञान गुण को आवरण करना है। इसी तरह प्रत्येक कर्म का स्वभाव प्रकृति-बन्ध निश्चित करता है। इस प्रकृति-बन्ध को मूल आठ प्रकृतियाँ हैं, जिन्हें अष्टकर्म कहा जाता है । वे हैं
१-ज्ञानावरणीय, २-दर्शनावरणीय, ३-वेदनीय, ४-मोहनीय,
५-नाम, ६-गोत्र, ७-आयु, और ८-अन्तराय । २ इन आठ मूल-प्रकृतियों की भी उत्तर-प्रकृतियाँ १५८ मानी गई हैं, जिनका विशद विवेचन कम्मपयडी, कर्म-ग्रन्थ आदि कर्म-शास्त्र से सम्बद्ध १. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद्मप्रभ जिन स्तवन । तुलनीय
प्रकृतिश्च स्थिति यः प्रदेशोऽनुभवः परः । चतुर्धा कर्मणो बन्धो दुःखोदय-निबन्धनम् ।।
-योगसार-प्राभृत, अ० ४, पद २ । २. आद्यो ज्ञान दर्शनावरण वेदनीय मोहनीयायुष्क नामगोत्रान्तरायाः।
-तत्त्वार्थसूत्र, ८५
एवं प्रथम कर्मग्रन्थ-३ ॥ ३. मूल पगइअट्ठ उत्तर पगई अडवनसयमेयं ।
-प्रथम कर्मग्रन्थ, गाथा २।