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आनन्दघन का रहस्यवाद
कर्म और आत्मा दोनों शाश्वत् और अनादि हैं। इन दोनों का सम्बन्ध अनादिकाल से है और प्रवाह की दृष्टि से यह सम्बन्ध अनन्तकाल तक चलता रहेगा । यद्यपि किसी आत्मा विशेष के सम्बन्ध में इस सम्बन्ध का विच्छेद अर्थात् कर्म से मुक्ति सम्भव है।।
इस प्रकार, यह स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा के बन्धन का कारण कर्म है, जो राग-द्वेषजन्य है। इस सम्बन्ध में चार्वाक को छोड़कर प्रायः सभी भारतीय दार्शनिकों की यह अवधारणा है कि आत्मा की शुद्धता पर आवरण डालनेवालो कोई विजातीय शक्ति है जिसके कारण आत्मा का निज स्वरूप आवृत हो जाता है। आत्मा के इस शुद्ध स्वरूप को आवृत करने वाली विजातीय शक्ति को जैनदर्शन में 'कर्म' की संज्ञा दी गई है। जैनेतर दर्शनों में 'कर्म' शब्द के पर्यायवाची के रूप में प्रकृति, माया अविद्या, अदृष्ट, अपूर्ण, संस्कार, वासना, आशय, धर्माधर्म, पाश, शैतान, देव, भाग्य आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है, किन्तु सभी का फलितार्थ एक ही है।
मूल प्रश्न यह है कि बन्धन किसे कहते हैं और उसके कारण क्या हैं ? साधक की समग्र साधना का प्रयोजन बन्धन से मुक्ति है, क्योंकि बन्धन से मुक्त हुए बिना आत्मोपलब्धि या वीतरागता की प्राप्ति नहीं होती। तत्त्वार्थसूत्र में बन्धन का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि कषाय भाव के कारण (राग-द्वेषादि विभाव परिणतियों के कारण) जीव कर्म-योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वही बन्ध है। दूसरे शब्दों में, जैन सिद्धान्त में बन्धन का अभिप्राय कर्म-पुद्गलों से आत्मा का संयोग होना या सम्पृक्त होना है। बन्ध दो प्रकार का है-द्रव्य-बन्ध और भाव-बन्ध । कर्मपुद्गलों का आत्म-प्रदेशों से सम्बद्ध होना-एक रूप होना द्रव्य-बन्ध है और राग-द्वेषादि विकारी भाव भाव-बन्ध हैं।
जैनदर्शन में यह बन्धन की प्रक्रिया चार भागों में विभक्त की गई है। आनन्दघन ने कर्म-बन्धन सम्बन्धी समग्र विषयों की चर्चा इन पंक्तियों में संक्षेपतः की है१. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्त स बन्धः ।
-तत्त्वार्थसूत्र, ८॥२-३।