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आनन्दवन के रहस्यवाद के दार्शनिक आशर २२५ जैनदर्शन में षड्द्रव्य माने गये हैं। ये छह द्रव्य आधार हैं और प्रत्येक द्रव्य में स्थित गुण-पर्याय आधेय हैं। अतः अनादिकाल से आधार और आधेय का सम्बन्ध बना हुआ है । यह कहना उपयुक्त नहीं है कि पहले द्रव्य रूप आधार था और बाद में गुण-पर्याय रूप आधेय था। द्रव्यरूप आधार बिना गुण-पर्याय रूप आवेय के कैसे सम्भव है ? और गुण-पर्याय रूप आवेय बिना द्रव्यरूप आधार के कैसे सम्भव है ? इसकी पुष्टि हेतु आनन्दघन उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। यथा-मुर्गी के बिना अण्डा नहीं होता और अण्डे के विना मुर्गी नहीं होती और इन दोनों में कौन प्रथम
और कौन बाद में यह नहीं बताया जा सकता; ठीक यही बात आत्मा और कर्म पर भी लागू होती है। दूसरा दृष्टान्त वीज-वृक्ष का देकर बताया है कि वीज के बिना वृक्ष नहीं होता और वृक्ष के बिना बीज नहीं होता। इसी तरह रात और दिन, सिद्ध और संसार, जन्म और मरण, दोपक
और प्रकाश आदि की सिद्धि आधार-आवेय के सम्बन्ध से ही घटित होती है। अन्त में, वे कहते हैं कि तत्त्व-ज्ञान में रुचि रखने वाले जिज्ञासु साधक आनन्दमय सर्वज्ञ प्रभु के वचनों पर श्रद्धा रख कर जैनागमों में कथित अनादि-प्रवाह प्रचलित शाश्वत् भावों पर विचार करें।'
जैनागमानुसार आधार और आयेय दोनों ही शाश्वत् हैं। द्रव्य और पर्याय परस्पराश्रित हैं। कहने का तात्पर्य यह कि जड़ और चेतन अथवा १. विचारी कहा विचारइ रे, तेरो आगम अगम अपार ।
बिनु आधार आधेय नहीं रे, विनु आधेय आधार । मुरगी बिन इंडा नहीं प्यारे, वा बिनु मुरग की नार ॥ भुरट बीज विना नहीं रे, बीज न भुरटा टार। निस बिनु द्यौस घटइ नहीं प्यारे, दिन विनु निस निरधार । सिद्ध संसारी बिनु नहीं रे, सिद्ध न बिनु संसार । करता बिनु करणो नही प्यारे, विनु करणी करतार ॥ जामण मरण बिना नही रे, मरण न जनम विनास । दीपक बिनु परकास के प्यारे, दिन दीपक परकास ।। आनन्दघन प्रभु वचन की रे, परिणति धरि रुचिवंत । सास्वत भाव विचारते प्यारे, खेलो अनादि अनंत ॥
-आनन्दघन ग्रन्धावली, पद ६२ ।