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आनन्दघन का रहस्यवाद
ग्रन्थों में मिलता है । आनन्दघन ने इन कर्म - प्रकृतियों के प्रमुख भेदों का उल्लेख इस प्रकार किया है
ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ९, वेदनीय २, मोहनीय २, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ( दर्शनमोहनीय के ३ भेद और चारित्रमोहनीय के २५ - सोलह कषाय और नव उपकषाय इस प्रकार कुल २५ + ३ = २८ भेद), आयुष्य के ४, नामकर्म २२ – शुभ और अशुभ ( शुभ और अशुभ प्रकृति के १०३ भेद), गोत्र २ – ऊँच और नीच तथा अन्तराय कर्म के ५ भेद ।
कुछ जैनाचार्य नामकर्म की उत्तर प्रकृति ९३ मानकर समस्त उत्तर प्रकृतियों की संख्या १४८ मानते हैं । उक्त सभी मूल - उत्तर प्रकृतियों का क्षय करने पर ही पंचम गति रूप मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है । '
उपर्युक्त इन आठ कर्मों में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय-ये चार घाति कर्म कहलाते हैं और नाम, गोत्र, आयुष्य तथा datta - चार अघाति । आनन्दघन ने घाति कर्मों को परमात्मा के यथार्थ दर्शन में पर्वत के समान बाधक कहा है ।"
वस्तुतः आत्म-गुणघातक ४ कर्म हैं, किन्तु उनकी उत्तर - प्रकृतियाँ अनेक हैं। आत्मा के चार मूल अनुजीवी गुणों - दर्शन, ज्ञान, चारित्र (सुख) और वीर्य (शक्ति) का घात करनेवाली ३७ घाति उत्तर प्रकृतियाँ हैं। इनमें सर्वगुण घाति प्रकृतियाँ २० हैं और देश घाति कर्म प्रकृतियाँ २७ हैं ।
'घाति' और 'अघाति' जैनदर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं जो आत्मा के मूल गुण- ज्ञान, दर्शन आदि का नाश करता है, उसे घाति कर्म कहते हैं और इसके विपरीत जो आत्मा के मूल गुणों का नाश नहीं करता है उसे अघाति कर्म कहा जाता है ।
१. ज्ञानावरणी पंच प्रकार नी, दरसण रा नव भेद | वेदनी मोहनी दोइ दोइ जाणीइ रे, आउखो चार विछेद || शुभ अशुभ दोउ नाउं बखाणीयै, ऊंच नोच दोय गोत । विघन पंचक निवारी आप थी, पंचम गति पति होत ॥ - आनन्दघन ग्रन्थावली, पद १३ ।
आनन्दघन ग्रन्थावली, अभिनन्दन जिंन स्तवन ।
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