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आनन्दघन का रहस्यवाद
तक रहती है, दूसरी अन्तरात्म-अवस्था चतुर्थ - गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक रहती है और तीसरी परमात्म-अवस्था तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में होती है । अभिधान राजेन्द्रकोश में कहा गया है कि जो शरीर को
आत्मा मानता है एवं सर्व पौद्गलिक पदार्थों में ममत्व बुद्धि रखता है, वह बहिरात्मा है । जो संसार में रहकर भी आत्मा में, ज्ञानादि उपयोग लक्षण में जागरूक रहता है वह अन्तरात्मा है और जो केवल ज्ञान और केवल-दर्शन से युक्त है, वह परमात्मा है । "
निद्रा, स्वप्न, जाग्रत् और तुरीय
आत्मा की द्विविध एवं त्रिविध अवस्थाओं के क्रम में जीव की चार अवस्थाओं पर विचार कर लेना भी आवश्यक है, क्योंकि सन्त आनन्दघन ने आत्मा की चार अवस्थाओं पर भी प्रकाश डाला है ।
सामान्यतः जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय-आत्मा की ये चार अवस्थाएँ औपनिषदिक चिन्तन में बहुचर्चित हैं । माण्डूक्योपनिपद्र एवं सर्वसारोपनिषद् में आत्मा की उक्त अवस्थाओं की विशद चर्चा है । योगवासिष्ठ' में भी इन अवस्थाओं का वर्णन किया गया है ।
१. अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग २, पृ० १८८-१८९ । २. माण्डूक्योपनिषद्, २-१२
३.
मन आदि चतुर्दशकरणैः पुष्कलैरादित्याद्यनुगृहीतैः शब्दादीन्विषयान्स्थूलान्यदोपलभते तदात्मनो जागरणं, तद्वासना रहितश्चतुर्भिः करणैः शब्दाद्यभावेऽपि वानननवादकाय दोपलभतेतात्मनः स्वप्नम् । चतुर्दशकरणोपरमाद्विशेषविज्ञानाभावाद्यदातदात्मनः सुषुप्तम् ॥ १ ॥ अवस्थात्रय भावाद्भावसाक्षि स्वयं भावाभाव रहितं नैरन्तर्यं चैक्यं यदा तदा तत्तुरीयं चैतन्यमित्युच्यतेऽन्न कार्याणं षण्णां कोशानां समूहोऽन्नमयः कोश इत्युच्यते ॥
४.
--सर्वसारोपनिपद् (३५) । जाग्रत्स्वप्न सुषुताख्यं त्रयं रूपं हि चेतसः ॥ ( ६ / ११२४ ३६ ) घोरं शान्तं मूढं च आत्मचितमिहास्थितम् ।
घोरं जाग्रन्मयं चित्तं शान्तं स्वप्नमयं स्थितम् ॥ ( ६ / २।१२४१३७ )
मूढं सुषुप्त भावस्थं त्रिभिर्हीनं मृतं भवेत् ।
यच्च चित्तं मृतं तत्र सत्त्वमेकं स्थितं समम् || ( ६ / १११२४१३८)