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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार २१५ जो अनन्त ज्ञान के आनन्द से परिपूर्ण और परम पवित्र है, समस्त उपाधियों से मुक्त है, साथ ही जो इन्द्रियातीत और अनन्त गुण रूप मणियों का भण्डार है वह परमात्मा है। अन्त में उन्होंने 'इस परमातम साध सुज्ञानी' कहकर उक्त लक्षण से युक्त परमात्म-अवस्था को प्राप्त करने पर बल दिया है।
इस प्रकार, उपर्युक्त आत्मा की तोनों अवस्थाओं के स्वरूप एवं लक्षणों का निर्देश करने के पश्चात् आनन्दघन परमात्म-दशा की प्राप्ति का उपाय बताते हुए कहते हैं :
बहिरातम तजि अन्तर आतमा, रूप थई थिर भाव सुज्ञानी।
परमातम नुं हो आतम भाव वु, आतम अरपण दाव सुज्ञानी ।' ___ यहां आनन्दधन का स्पष्ट कथन है कि आत्म-समर्पण ही वास्तव में परमात्म-प्रप्ति का सबसे सरल उपाय है। इसकी शर्त यही है कि साधक बहिरात्म भाव को छोड़े। बहिरात्म भाव का त्याग कर अन्तरात्म भाव में अर्थात् ज्ञाता-द्रष्टा भाव में स्थित रहकर परमात्म-स्वरूप का चिन्तन करे । इस प्रकार, बहिरात्मा का विसर्जन तथा परमात्मा में अन्तरात्मा का समर्पण कर परमात्म-अवस्था को प्राप्त करे। यही परनात्म-प्राप्ति का सच्चा उपाय है। यहां आनन्दघन ने बहिरात्मा को परमात्म-प्राप्ति में बाधक, अन्तरात्मा को परमात्म-दशातक पहुँचने का साधन तथा परमात्मा को अपना साध्य माना है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य अपनी अपूर्णता से छुटकारा पाना चाहता है। वस्तुतः बहिरात्म-दशा हमें अपनी अपूर्णता का बोध कराती है, अन्तरात्म-दशा हमारे अन्तर में निहित पूर्णता को चाह की परिचायक है और तीसरी परमात्म-दशा पूर्णता को द्योतित करती है।
आनन्दघन द्वारा प्रतिपादित आत्मा की त्रिविध अवस्थाएँ साधक के आध्यात्मिक विकास को समझने की पद्धति हैं। आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से चौदह गुणस्थानों का विधान जैन-सिद्धान्त की विशेषता है। आत्मा की त्रिविध अवस्थाएँ भी विकास की तीन मंजिलें हैं। इन विविध अवस्थाओं की तुलना जैनदर्शन में वर्णित चौदह गुणस्थानों से की जा सकती है। प्रथम बहिरात्म-अवस्था पहले गुणस्थान से तृतीय गुणस्थान
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, सुमति जिन स्तवन ।