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आनन्दघन का रहस्यवाद इस प्रकार साधक बहिरात्मा के विमुख एवं अन्तरात्मा में स्थित होकर परमात्म-स्वरूप का चिन्तन करता हुआ एक दिन स्वयं परमात्मअवस्था को प्राप्त कर लेता है।
अन्तरात्म-दशा की ओर अभिमुख होने का सबसे पहला लक्षण हैआत्मा और शरीर का भेद-ज्ञान । आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है कि 'यह शरीर अन्य है, आत्मा अन्य है। साधक इस तत्त्व-बुद्धि के द्वारा दुःख एवं क्लेशजनक शरीर की ममता का त्याग करे।' अन्तरात्मा की
ओर उन्मुख होने पर परमात्म-प्राप्ति के लिए एक उर्वर भूमि तैयार हो जाती है। किंतु प्रश्न यह है कि अन्तरात्मा से परमात्म-अवस्था तक पहुँचने का उपाय क्या है? परमात्म-दशा का लक्षण क्या है? इस सम्बन्ध में आनन्दघन ने परमात्म-स्वरूप का वर्णन इस प्रकार किया है :
ज्ञानानंदे हो पूरण पावनों, वजित सकल उपाध सुज्ञानी। अतीन्द्रिय गुण-गण-मणि आगरु, इस परमातम साध सुज्ञानी ॥२
१. अन्नं इमं सरीरं, अन्नो जीवुत्ति एव कय बुद्धि । दुक्ख-परिकिलेस करं, छिदं ममत्तं सरीराओ।
-आवश्यक नियुक्ति, १५४७ । २. आनन्दघन ग्रन्थावली, सुमति जिन स्तवन । तुलनीय-(क) कम्मकलंक विमुक्को परमप्पा भण्णए देवो ।
-मोक्ष-प्राभृत, ५ । (ख) स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा, १९८ । (ग) परमात्माऽति निर्मलः ।
-समाधि तंत्र, ५ । (घ) योगसार, ९ एवं परमात्म-प्रकाश , १५ । (ङ) ज्ञानार्णव, ८। (च) चिद्रूपानंद मयो निःशेषोपाधिवर्जितः शुद्धः । अत्यक्षोऽनंतगुणः परमात्मा कीर्तितस्तज्जैः ॥
-योगशास्त्र, एकादश प्रकाश, ८ ॥ (छ) ब्रह्मविलास, परमात्म छत्तीसी, पृ० २२७ । (ज) केवलज्ञानादि परिणतस्तु परमात्मा ।
-अध्यात्ममत परीक्षा, १२५ ।