SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार २१३ गई है, इससे अन्तरात्म बुद्धि स्व-स्वरूप में रमण करने लगी है। अब आत्म-भाव के अतिरिक्त अन्य किसी पर पदार्थ में मेरी बुद्धि नहीं जाती । अन्तरात्मा ने बहिरात्मा की विवशताओं के बन्धन को तोड़कर माया- दासी तथा उसके समूचे परिवार को कुछ समय तक अपने अधीन कर लिया है । यद्यपि संसार के समस्त प्राणी जन्म, जरा और मृत्यु के वशीभूत हैं, फिर भी, मोह मूढ़ मानव क्षुद्र पौद्गलिक पदार्थों के प्रति इतनी ममता रखता है । इस बात को एक दृष्टान्त देकर आनन्दधन ने समझाया है— देव कांई न बाग में मीयां, किस पर ममता ऐसी । air में एक मियाँ साहब नीम की निबौलो एकत्र कर रहे थे । इसी अवसर पर संयोग से कोई व्यक्ति मियाँ साहब के घर पहुँचा और उसने उनकी बीबी से पूछा - मियाँ साहब कहां गये हैं ? प्रत्युत्तर मिला - बाग में गये हैं। जबकि मियाँ साहब बाग में पहुंच कर भी तुच्छ वस्तु निबौली इकट्ठी कर रहे हैं और उसी में आनन्द मान रहे हैं । मियाँ की भाँति सांसारिक जीव भी संसार के निस्सार पदार्थों में सुख मान रहा है । किन्तु पौद्गलिक पदार्थों में इसी ममत्व बुद्धि रखना कहां तक उचित है ? इसके विपरीत सम्यग्दर्शन को प्राप्त अन्तरात्मवर्ती जीव को यह आत्म-अनुभवज्ञान हो जाता है कि आत्मा ज्ञानस्वरूप है, आनन्द स्वरूप है और शरीर रोगों का और मन शोक सन्ताप का घर है । अतः वह शरीर में रहते हुए भी ज्ञाता-द्रष्टा भाव में स्थित होकर देह और मन का नाटक देखता रहता है और इस प्रकार अपने ज्ञानानन्दस्वरूप में रमण करता है । भेद ज्ञान होने पर अन्तरात्मवर्ती जीव पर निन्दा स्तुति आदि लोकापवाद का कुछ असर नहीं होता । वह तो केवल अनुभव-ज्ञान में लीन होकर स्व-स्वरूप का साक्षात्कार करता है ।' १. अवधू ! अनुभव कलिका जागी, मति मेरी आतम सुमिरन लागी । जाइन कबहु और ढिग नेरी, तोरी बनिता बेरी । माया चेरी कुटंब करी हाथे, एक डेढ़ दिन घेरी ॥ जोमन मरन जरा बसि सारी, असरन दुनियां जेती । दे कांई न बाग में मीयां, किस पर ममता ऐती ॥ अनुभव रस में रागे न सोगा, लोकवाद सब मेटा । केवल अचल अनादि अबाधित, शिवशंकर का भेटा || बरसा बूंद समुंद समानै, खबरि न पावै कोई । आनन्दघन है जोति समावै, अलख लखावै सोई ॥ — आनन्दधन ग्रन्थावली, पद ६० ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy