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आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार
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यद्यपि प्राचीन जैनागमों में स्पष्टतः जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय इन चार अवस्थाओं का निर्देश नहीं मिलता, फिर भी, आचारांग सूत्र में जाग्रत् एवं सुषुप्त (प्रसुप्त ) इन दो अवस्थाओं की झलक अवश्य पाई जाती है । उसमें कहा गया है कि जहाँ अज्ञानी जन सुप्त हैं वहां ज्ञानी जन सदैव जाग्रत हैं ।' यहाँ प्रमत्त आत्मा को सुषुप्त और अप्रमत्त आत्मा को जाग्रत् कहा गया है । आगे चलकर इसका विकसित रूप परवर्ती साहित्य में देखने को मिलता है । आचारांग की भाँति आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षप्राभृत में आचार्य पूज्यपाद ने समाधि-शतक में और योगीन्दु मुनि ने परमात्म- प्रकाश में सुषुप्त और जाग्रत् इन दो अवस्थाओं की चर्चा की है । गोताकार ने भी इस तथ्य को अभिव्यक्त किया है।
हमारी जानकारी में जैन-धर्म में आत्मा की चार अवस्थाओं का चित्रण सन्मति के टीकाकार मल्लवादी ने 'द्वादशारनयचक्र' में सर्वप्रथम किया है । उसमें चेतन (आत्मा) की चार अवस्थाएँ बतलायी गयी हैं—
अहं भावानहं भावौ त्यक्त्वा सदसती तथा ।
यदसक्तं समं स्वच्छं स्थितं तत्तु र्यमुच्यते । ( ६ / १११२४/२३) — योगवासिष्ठ, उद्धृत, योगवासिष्ठ और उसके सिद्धान्त, पृ० २७५-२७८ ।
१. सुत्ता अमुणी सया, मुणिणो सया जागरन्ति ।
२. जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्भि । जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे || - मोक्ष-प्राभृत गाथा, ३१ ।
३. व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागर्त्यात्मगोचरे । जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुतवात्मगोचरे ॥ - समाधितंत्र, श्लो० ७८ ।
४.
- आचारांग, ३।१।१
५.
जा णिसि सयल हं देहि यहं जोग्गिउ तहिं जग्गइ । जहिं पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ ॥ - परमात्म प्रकाश, अ० २, गाथा ४६ । या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
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- गीता, २।६९