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आनन्दघन का रहस्यवाद
का श्रेष्ठ उत्तमांग मस्तिष्क के रूप में स्थान देकर आनन्दघन ने बद्धिमत्ता का सुन्दर परिचय दिया है।
तात्पर्य यह कि जैनदर्शन में ये सब दर्शन समा जाते हैं। भिन्न-भिन्न दृष्टि से सभी दर्शन सत्यांश हैं। सन्त आनन्दधन की विशिष्टता यह है कि उन्होंने किसी भी दर्शन की निन्दा नहीं की और न किसी दर्शन की उपेक्षा की। किन्तु उन्होंने सभी दर्शनों में निहित सत्यांश को गहराई से पहचाना है और पहचानने के पश्चात् ही अपनी सूझ-बूझ के साथ सबको यथायोग्य स्थान दिया है।
अपरोक्षानुभूति
आनन्दघन का रहस्यवाद अनुभूतिजन्य है। इसलिए उसमें अपरोक्षानुभूति या आत्मानुभूति की प्रधानता को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। रहस्यानुभूति या आत्मानुभूति को अभिव्यक्त करने हेतु जो विविध विवेचनपद्धतियाँ अपनायी जाती हैं वे सीमित हैं, क्योंकि भाषा ससीम है और अपरोक्षानुभूति असीम। ये पद्धतियाँ अपरोक्षानुभूति के सम्बन्ध में कुछ इंगित कर सकती हैं, किन्तु उस अपरोक्ष तत्त्व की अनुभूति नहीं करा सकती।
उक्त विवेचन-पद्धतियों के अतिरिक्त दार्शनिक वाद-विवाद अथवा तर्क-वितर्क की प्रणाली के द्वारा भी रहस्यमय परमतत्त्व की व्याख्या करने का प्रयास प्राचीनकाल से दार्शनिकों द्वारा होता रहा है। किन्तु आनन्दघन ने आत्मानुभव के क्षेत्र में दार्शनिक विवादों तथा तर्क-विचार को अनुपयुक्त माना है। वे षट्दर्शन के वारजाल में उलझने की अपेक्षा आत्मानुभव को अधिक महत्त्व देते हैं। यही कारण है कि उनके अधिकांश पदों में 'आत्मानुभव' की हृदयस्पर्शी विवेचना है। 'आत्मानुभव-रस-कथा' की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए वे कहते हैं :
आतम अनुभव रस कथा, प्याला पिया न जाइ ।
मतवाला तो ढहि परै, निमता परै पचाइ ॥२ १. जैन जिणेसर वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगे रे।
अक्षर न्यास धरी आराधक, आराधै गुरु संगे रे ॥ ५ ॥
आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ३५ । २. वही।