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________________ आनन्दघन की विवेचना-पद्धति १५७ (१) सांख्य-योग, (२) न्याय-वैशेषिक (३) पूर्वोत्तर-मीमांसा । ये तीन वैदिक और (४) जैन, (५) बौद्ध तथा (६) चार्वाक, ये तीन अवैदिक दर्शन । षट्दर्शन तो एक उपलक्षण मात्र ही है वस्तुतः विश्वावलोकन की अनेक दष्टियाँ हैं, वे सब जैनशासन में समाहित हैं। उपाध्याय यज्ञोविजय के शब्दों में ".....""सर्वदर्शन तणु मूल तुझ शासन, तिणें ते एक सुविवेक थुणिए।१ तात्पर्य यह कि जिनेश्वर प्रभु का शासन सर्वदर्शनों का मूल है। यद्यपि प्रत्येक दर्शन की विचारधारा पृथक्-पृथक् है, तथापि प्रत्येक दर्शन के विचार अमुक दृष्टि से (किसी अपेक्षा से) जैन दर्शन के विचारों में मान्य हैं, इसीलिए जैनदर्शन में सभी दर्शनों का समावेश हो जाता है। दार्शनिक क्षेत्र में प्रमुख सिद्धान्त आत्म-सत्तावाद है। इस सिद्धान्त पर ही भारतीय दर्शन के सभी तात्त्विक सिद्धान्त टिके हुए हैं। इसीलिए आनन्दघन ने आत्मवाद को लक्ष्य में रखकर षट्दर्शनों की चर्चा की है। सांख्य-योग दर्शन मुख्य रूप से आत्म-सत्ता की विचारणा करता है, अतः आनन्दघन ने इन दोनों को जिनतत्त्व-ज्ञान रूपी कल्पवृक्ष के दो पैर माना है।२ इसी तरह बौद्ध और मीमांसा दर्शन क्रमशः आत्मा के भेद और अभेद की चर्चा करते हैं अर्थात् बौद्धदर्शन आत्मा को अनेक, भेदरूप, क्षणिक एवं परिवर्तनशील मानता है और मीमांसा दर्शन आत्मा को अभेद (एक रूप रहनेवाली नित्य) रूप मानता है। इसीलिए ये दोनों जिनतत्त्वज्ञान रूप कल्पवृक्ष के दो हाथ हैं, और चार्वाक दर्शन आत्मा की सत्ता केवल इन्द्रिय-प्रत्यक्ष तक ही मानता है। इस दृष्टि से उसे कुक्षि (उदर) के रूप में स्थापित किया । अन्त में जैनदर्शन को जिन-परमात्मा. १. साडा त्रण सो गाथा नु स्तवन, ढाल १७ । २. जिनसुर पादप पाय बखाणु, सांख्य जोग दुय भेदे रे । आतम सत्ता विवरण करता, लहो दुग अंग अखेदे रे ॥ २॥ -आनन्दघन ग्रन्थावली, नमिजिन स्तवन । ३. भेद अभेद सुगत मीमांसक, जिनवर दुय कर भारी रे । लोकालोक अवलम्बन भजिय, गुरुगमथी अवधारी रे ।। ३।। वही। लोकायतिक कूख जिनवरनी, अंस बिचार जो कीजै रे। तत्त्वविचार सुधारसधारा, गुरुगम विण किम पीजै रे॥४॥ वही।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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