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आनन्दघन की विवेचना-पद्धति
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है कि ग्रहों तथा चन्द्रमा का प्रकाश स्वतन्त्र नहीं है, ये सब सूर्य के प्रकाश के बल से ही आलोकित होते हैं। इसी तरह दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुण भी आत्मा से पृथक् स्वतन्त्र नहीं हैं । यद्यपि व्यवहार में ये आत्मा के गुण कहे जाते हैं किन्तु नैश्चयिक अथवा पारमार्थिक दृष्टि से दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही आत्मा है। ये तीनों आत्मा से भिन्न न होकर अभिन्न हैं, आत्ममय हैं। इसमें गुण-गुणी का भेद नहीं रहता, प्रत्युत दोनों अभिन्न रूप में रहते हैं। जबकि व्यवहार-दृष्टि में गुण (दर्शन, ज्ञान-चारित्र) और गुणी (आत्मा) पृथक्-पृथक् रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। यही बात आचार्य कुन्दकुन्द तथा अमितगति ने भी कही है।' मोक्ष-मार्ग में भी कहा गया है कि दर्शन, ज्ञान-चारित्र ये तीन भेद व्यवहार से ही कहे जाते हैं, निश्चय से तीनों एक आत्मा ही हैं। उक्त कथन का अभिप्राय यह है कि व्यवहार दृष्टि से वस्तु में जो भिन्नता परिलक्षित होती है, निश्चय-दृष्टि से उसी में अभिन्नता या अभेद की प्रतीति होती है। व्यवहार-दृष्टि से दर्शन, ज्ञान
और चारित्र आत्मिक-गुण हैं, किन्तु पारमार्थिक दृष्टि से ये सब आत्ममय हैं। निम्नलिखित पंक्तियों में दूसरा उदाहरण सोने का देकर आत्मा और उसके गुण-पर्यायों की विवेचना करते हैं :
भारी पीलो चीकणो कनक, अनेक तरंग रे। पर्याय दृष्टि न . दीजिए, एकज कनक अभंग रे ॥३
सामान्य बात यह है कि स्वर्ण के साथ पर्याय रूप में तीन गुण निहित रहते हैं-भारीपन, पीलापन और चिकनापन, अर्थात् सोना वजन में भारी रंग से पीला और गुण से चिकना (स्निग्ध) ऐसे अनेक रूपों में दृष्टिगत होता है। इसी तरह स्वर्ण के हार, कंगन, कंठी, कड़ा आदि विभिन्न आभूषण बनाए जाते हैं किन्तु ये सब पर्याय-दृष्टि से देखने पर ही भिन्नभिन्न प्रतीत होते हैं। यदि पर्याय-दृष्टि को गौण कर द्रव्य-दृष्टि से देखा जाए तो सोना एक और अखण्ड-अभेद रूप ही रहता है। उसके भेद-प्रभेद नहीं हो सकते। वस्तुतः स्वर्ण में भारीपन, पीलापन व चिकनापन अथवा
१. ववहारेणु दिस्सदि णाणिस्स चरित्त दसंणं णाणं । __णावि णाणंण चरित्तंण दंसणं जाणगो सुद्धो॥
-समयसार, गा० ७ एवं योगसार प्राभृत, ४३ । २. मोक्षमार्ग, ३१ ३. आनन्दघन ग्रन्थावली, अरजिन स्तवन ।