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________________ १४२ आनन्दघन का रहस्यवाद विभिन्न आभूषणों की कल्पना करना पर्याय - दृष्टि है । उक्त पंक्तियों में आनन्दघन ने स्वर्ण के उदाहरण द्वारा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टि का गूढ़ रहस्य सरल सुगम भाषा में अभिव्यक्त किया है । इसी उदाहरण को आत्मा पर घटाते हुए वे कहते हैं : दर्शन - ज्ञान चरण थकी, अलख स्वरूप अनेक रे । निर्विकल्प रस पीजिए, शुद्ध निरंजन एक रे ॥' जैसे स्वर्ण के विविध गुण और पर्याय सोने से अलग नहीं हैं, उसी में समा जाते हैं, वैसे ही दर्शन, ज्ञान चारित्र आदि गुण पर्याय आत्मा से पृथक् न होकर आत्ममय ही हैं । यद्यपि पर्याय - दृष्टि से देखने पर आत्मा भी दर्शन ज्ञान और चारित्र की दृष्टि से अनेक रूपवाली प्रतिभासित होती है, यतः व्यवहार या पर्याय -दृष्टि से आत्मा के अनन्त गुण और पर्याएँ मानी गई हैं । लेकिन आत्मा को यदि निर्विकल्प भाव से अर्थात् गुण- पर्याय आदि समग्र संकल्प-विकल्प से रहित होकर मात्र शुद्ध नैश्चयिक दृष्टि से देखा जाय तो वह शुद्ध, निरंजन और एक रूप में ही प्रतिभासित होती है । उपाध्याय यशोविजय ने भी पातंजल योगदर्शन पर अपनी टिप्पणी में इसी बात की ओर निर्देश करते हुए कहा है कि निर्विकल्प - ध्यान में शुक्ल ध्यान के दूसरे पाद में एक स्वात्म द्रव्य का पर्याय रहित द्रव्य का शुद्ध ध्यान होता है और इसलिए वह स्वसमय निष्ठा है । उस अवस्था में द्रव्यार्थिक प्रधान शुद्ध निश्चयrय की मुख्यता होती है । निश्चय-दृष्टि और व्यवहार-दृष्टि की उपयोगिता पात्र भेद से पृथक् रूप में प्रतिपादित करते हुए आनन्दघन का कथन है : परमारथ पंथ जे कहे, ते रंजे एक तन्त रे । व्यवहार लख जे रहे, तेहना भेद अनन्त रे ॥ जो व्यक्ति परमार्थ (निश्चयात्मक) मार्ग का कथन करता है, वह एक ही शुद्धात्म-तत्त्व रूप को देखकर प्रसन्न होता है, किन्तु जो व्यवहार नय की ३. ९. वही । २. पातंजल योगदर्शन पर उपाध्याय यशोविजय कृत टिप्पणी, उद्धृत - अध्यात्म दर्शन, पृ० ३८५ । आनन्दघन ग्रन्थावली, अरजिन स्तवन ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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