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आनन्दघन का रहस्यवाद
रिक्त नमपत्रों की प्रतिच्छाया पड़ती है अर्थात् जहां व्यवहार-दृष्टि से था पर्याय-दृष्टि से आत्मस्वरूप की विचारणा की जाती है वहां पर समय है। इसी बात को उनके समकालीन उपाध्याय यशोविजय जी ने इस रूप में कहा है कि 'जो पर्यायों में ही रत हैं, वे पर समय में स्थित हैं और जो आत्म-स्वभाव में लीन हैं, उनकी स्वसमय में ही निश्चलतापूर्वक स्थिरता होती है।'' 'गुण पर्यायवद् द्रव्यम्'२ लक्षण के अनुसार आत्म-द्रव्य गुण और पर्यायों से युक्त है। साधारणतः दर्शन, ज्ञान और चरित्र आत्मा के गुण माने जाते हैं। अनेक विशेषणों और गुणों से युक्त आत्मा की विविध अवस्थाओं तथा पर्यायों की कल्पना की जाती है। किन्तु प्रश्न यह है कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र जो आत्मा के मूल गुण या स्व लक्षण कहे गये हैं, वे आत्मा से पृथक् हैं अथवा अपृथक् ? द्रव्य और गुण में क्या सम्बन्ध है ? दोनों को एक माना जाये या अलग-अलग ? इसके अतिरिक्त दर्शन, ज्ञान-चारित्र की भी अनेक पर्याएँ होती हैं। तो यहां भी वही प्रश्न खड़ा होता है कि गुण और पर्याय तथा आत्म-द्रव्य ये तीनों किस मात्रा में भिन्न हैं और किस मात्रा में अभिन्न ? इस पेचीदी समस्या का उत्तर आनन्दघन ने द्रव्य और पर्याय-दृष्टि तथा निश्चय और व्यवहार इन दो दृष्टियों (नयों) द्वारा दिया है । आत्मा और उसके दर्शन, ज्ञान-चारित्र गुण-पर्यायों को समझाने हेतु सर्वप्रथम सूर्य की उपमा देकर वे अपनी बात प्रस्तुत करते हैं :
तारा नक्षत्र ग्रह चंद्रनी, ज्योति दिनेष मोझार रे।
दर्शन-ज्ञान-चरण थकी, शक्ति निजातम धार रे ॥३ जिस प्रकार सूर्य में तारों, नक्षत्रों, ग्रहों और चन्द्रमा की ज्योति अन्तर्भूत हो जाती है, उसी तरह आत्मा में भी दर्शनज्ञान-चारित्रगुण की शक्ति अन्तर्निहित है। इसे यदि और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो जगत् में ऐसी प्रसिद्धि है कि तारा, नक्षत्र, चन्द्रमा आदि प्रकाशमान पदार्थों में सूर्य का ही प्रकाश संक्रमित होता है। आधुनिक विज्ञान का भी यह अभिमत १. ये पर्यायेषु निरतास्ते ह्यन्य समय स्थिताः।। आत्म स्वभाव निष्ठानां ध्रुवा स्व समय स्थितिः ॥ ..
-अध्यात्मोपनिषद्, द्वितीय अधिकार, श्लो० २६ । २. तत्त्वार्थसूत्र, ५।३७ ३. आनन्दघन ग्रन्थावली ।