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आनन्दघन की विवेचना-पद्धति
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पाठ करवाया तो किसी ने रहमान का उच्चारण करवाया और किसी ने मुझसे अरिहंत का जाप करवाया। आगे इसी बात को कहती है कि किसी ने मुझ से मुण्डन करवाया तो किसी ने केशलोच और किसी ने जटा-जूट धारण करवाया। किसी ने मुझसे जागरण करवाया तो किसी ने मुझे सुला कर रखा। इस प्रकार सभी ने मुझे बाह्य कर्मकाण्डों में उलझा कर निजरूप से वंचित रखा। यद्यपि निश्चय-दृष्टि से चेतन और चेतना पृथक् पृथक् नहीं हैं, तथापि व्यवहार-दृष्टि से आनन्दघन ने चेतन और चेतना को पृथक्-पृथक् कल्पित किया है। ___ अन्यत्र भी आनन्दधन ने अधिकांश पदों में आत्म-तत्त्व का निरूपण निश्चय और व्यवहार दृष्टि के आधार पर सुन्दर ढंग से किया है। वासुपूज्य जिन स्तवन में उन्होंने आत्मस्वरूप की विचारणा निश्चय-व्यवहार दृष्टि के द्वारा की है। इसमें उन्होंने व्यवहार-दृष्टि से आत्मा को कर्ता तथा सुख-दुःख रूप कर्मफल का भोक्ता कहा है और निश्चय-दृष्टि से उसे एकमात्र आनन्द-स्वरूप सिद्ध किया है। अरजिन स्तवन में द्रव्य और पर्याय-दृष्टि से तथा निश्चय-व्यबहार-दृष्टि से उनकी विवेचनाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इसमें उन्होंने आत्मा तथा उसके दर्शन-ज्ञान आदि गुणपर्यायों की मीमांसा की है। सर्वप्रथम निश्चयनय की दृष्टि से 'स्वसमय' और व्यवहारनय की दृष्टि से ‘पर समय' की विवेचना करते हुए कहते हैं :
शुद्धातम अनुभव सदा, स्व समय एह विलास रे ।
परबड़ी छांहड़ी जे पड़े, ते परसमय-निवास रे ॥ जहां पर्यायार्थिक अथवा व्यवहार-दष्टि को गौण रखकर द्रव्यार्थिक अथवा नैश्चयिक (पारमार्थिक) दृष्टि की मुख्यता से शुद्ध आत्मा का अनुभव सदा होता है वही स्व समय रूप स्वात्मरमणता है और जहां शुद्धात्मा के अति
१. आनन्दघन ग्रन्थावली, वासुपूज्य जिन स्तवन । २. वही, अरजिनस्तवन, तुलनीय-जीवो चरित सण णाण ट्ठिउ तं हि ससमयं जाण ॥ २॥ पुग्गल कम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं ॥
-समयसार, गा०२ । जे पज्जयेसु णिरदा जीवा पर समयिग त्ति णिद्दिट्टा । आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा ॥ २॥
-प्रवचनसार, ज्ञेय०, गा० २।