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आनन्दघन का रहस्यवाद
कराया गया है कि आत्मा निश्चयनय की दृष्टि से न पुरुष है, न स्त्री है, न लाल है, न पोला है, न साधु है, न साधक है, न छोटा है और न बड़ा है आदि-आदि। इस पद की विस्तृत व्याख्या आत्न-स्वरूप के प्रकरण में की जाएगी। दूसरी ओर आनन्दघन ने 'मायडी मनै निरपत्र किण ही नमकी' पद में व्यवहार नय की दृष्टि से आत्मा के स्वरूप की सुन्दर मीमांसा की है। यद्यपि निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा का स्वभाव तो शुद्ध चेतना है, किन्तु व्यवहार नय की दृष्टि से वह जिस-जिस कुल में उत्पन्न होती है, उसके आचार-विचार वैसे ही हो जाते हैं। व्यवहार-दृष्टि से उक्त पद में आत्मा (चेतना) अपनी व्यावहारिक दशा की व्यथा का वर्णन करती हुई कहती है कि मैंने निष्पक्ष (शुद्ध स्वरूप में) रहने का प्रयास किया किन्तु संसार के विविध मत-मतान्तरवालों ने मुझे निष्पक्ष नहीं रहने दिया। योगियों ने मुझे 'जोगिन' बना लिया और यतियों ने 'जतनी' बनाया। भक्तिमार्गी भक्तों ने मुझे भक्तिन बनाया। इस तरह प्रत्येक मत वालों ने मुझे अपने मत का बना लिया। किसी ने मुझ से राम-नाम का १. मायडी मून निरपख किण ही न मूकी । निरपख रहेवा घणुं ही झूरी, घी में निजमति फूकी ॥१॥ जोगिये मिलिने जोगण कीधी, जतिये कीधी जतनी । भगते पकड़ी भगतण कीधी, मतवाले कीधी मतणी ।। २॥ राम भणी रहमान भणावी, अरिहंत पाठ पठाई । घर घर ने हूं धंधे विलगी, अलगी जीव सगाई ॥ ३ ॥ कोइये मूंडी कोइये लोची, कोइये केस लपेटी। कोई जगावी कोई सूती छोड़ी, वेदन किणही न मेटी ॥ ४ ॥ कोई थापी कोई उथापी, कोई चलावी कोई राखी । एक मनो में कोई न दीठो, कोई नो कोई नहि साखी ॥ ५ ॥ धींगो दुरबल नै ठेलीजै, ठीगौं ठीगो बाजे । अबला ते किम बोली सकिये, बड जोधा ने राजे ॥ ६ ॥ जे जे कीधू जेजे कराव्युं, ते कहता हूं लाजू। थोड़े कहे घणु प्रीछी ले जो, घर सूतर नहीं साजू ॥ ७ ॥ आप बीती कहेता रिसावें, तेहि सू जोर न चाले । अनंदधन प्रभु बोहड़ी झाले, बाजी सघली पाले ॥ ८ ॥
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ६६ ।