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________________ आनन्दघन का रहस्यवाद कहते हैं कि जो साधक उस शुद्धात्म तत्त्व की मूर्ति को अपने घट के भीतर परख लेता है, अनुभव कर लेता है, वह आनन्द पुंज रूप परमपद को प्राप्त होता है ।" इसी तरह 'अवधू एसो ज्ञान बिचारी, वामे कोण पुरुष कोण नारी' पद में भी रहस्यात्मक पद्धति का प्रयोग हुआ है । उसमें आनन्दघन का कथन है कि 'हे अवधू ! इस रहस्य पर विचार करो, जिससे यह ज्ञान हो सके कि उसमें पुरुष कान है और स्त्री कौन है ? यह आत्मा ब्राह्मण के रूप में स्नानादि बाह्यशौच में प्रवृत्त हुई और योगी के रूप में शिष्या बन कर रही है । मुसलमान के रूप में उत्पन्न होने से कलमा पढ़पढ़कर यह तुर्कनी भी हुई है । फिर भी, यह अकेली ही रहती है, क्योंकि ये सभी पर्याय भाव इसका निज स्वरूप नहीं है । कारान्तर से आनन्दघन के— यही भाव १२४ जोगिये मिलिने जोगण कीधी, जतिये कीधी जतनी । भगते पकड़ी भगतणी कोधी, मतवाले कीधी मतणी ॥ राम भणी रहमान भणावी, अरिहंत पाठ पठाई । घर घर ने हूँ धंधे विलगी, अलगी जीव सगाई ।। २ लागा । ९. अवधू ! सो जोगी गुरु मेरा, इन पद का करे रे निवेडा । तरुवर एक मूल बिन छाया, बिन फूले फल शाखा पत्र नहीं कछु उनकु, अमृत गगने तरुवर एक पंछी दोउ बैठे, एक गुरु एक चेले ने जुग चुणचुण खाया, गुरु निरन्तर गगन मंडल में अघविच कूआ, उहां है अभी का वासा । सगुरु होवे सो भर-भर पीवे, न गुरु जावे गगन मंडल में गउआ बिहानी, धरती दूध माखण थासो बिरला पाया, छासे जग थड बिनु पत्र, पत्र बिनु तुंबा, बिन जीभ्या गुण गाया । गावन वाले का रूप न रेखा, सुगुरु मोही बताया ॥ ५ ॥ आतम अनुभव बिन नहीं जाने, अंतर ज्योति जगावै । प्यासा ॥ ३ ॥ भरमाया ॥ ४ ॥ घट अन्तर परखे सोही मूरति लागा ॥ १ ॥ चेला । खेला ॥ २ ॥ २. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ६६ ॥ जमाया । आनन्दघन पद पावै ॥ ६ ॥ — आनन्दघन ग्रन्थावली, पद १०३ ।
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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