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आनन्दघन का रहस्यवाद
कहते हैं कि जो साधक उस शुद्धात्म तत्त्व की मूर्ति को अपने घट के भीतर परख लेता है, अनुभव कर लेता है, वह आनन्द पुंज रूप परमपद को प्राप्त होता है। इसी तरह ‘अवधू एसो ज्ञान बिचारी, वामे कोण पुरुष कोण नारी' पद में भी रहस्यात्मक-पद्धति का प्रयोग हुआ है। उसमें आनन्दघन का कथन है कि 'हे अवधू ! इस रहस्य पर विचार करो, जिससे यह ज्ञान हो सके कि उसमें पुरुष कान है और स्त्री कौन है ? यह आत्मा ब्राह्मण के रूप में स्नानादि बाह्यशौच में प्रवृत्त हुई और योगी के रूप में शिष्या बन कर रही है। मुसलमान के रूप में उत्पन्न होने से कलमा पढ़पढ़ कर यह तुर्कनी भी हुई है। फिर भी, यह अकेली ही रहती है, क्योंकि ये सभी पर्याय भाव इसका निज स्वरूप नहीं है। यही भाव प्रकारान्तर से आनन्दघन के
जोगिये मिलिने जोगण कीधी, जतिये कीधी जतनी। भगते पकड़ी भगतणी कोधी, मतवाले कीधी मतणी ।। राम भणी रहमान भणावी, अरिहंत पाठ पठाई। घर घर ने हूँ धंधे विलगी, अलगी जीव सगाई ॥ अवधू ! सो जोगी गुरु मेरा, इन पद का करे रे निवेडा । तरुवर एक मूल बिन छाया, बिन फूले फल लागा। शाखा पत्र नहीं कछु उनकु, अमृत गगने लागा ॥ १॥ तरुवर एक पंछी दोउ बैठे, एक गुरु एक चेला। चेले ने जुग चुण चुण खाया, गुरु निरन्तर खेला ॥ २ ॥ गगन मंडल में अधविच कूआ, उहां है अभी का वासा । सगुरु होवे सो भर-भर पीवे, न गुरु जावे प्यासा ॥ ३ ॥ गगन मंडल में गउआ बिहानी, धरती दूध जमाया। माखण थासो बिरला पाया, छासे जग भरमाया ॥४॥ थड बिनु पत्र, पत्र बिनु तुंबा, बिन जीभ्या गुण गाया। . गावन वाले का रूप न रेखा, सुगुरु मोही बताया ॥ ५ ॥ आतम अनुभव बिन नहीं जाने, अंतर ज्योति जगावै । घट अन्तर परखे सोही मूरति, आनन्दघन पद पावै ॥ ६ ॥
-आनन्दघन ग्रन्थावली, पद १०३ । २. आनन्दधन ग्रन्थावली, पद ६६ ।