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________________ आनन्दघन की विवेचना-पद्धति १२५ पद में स्पष्टतः झलकता है। चेतना कर्मों के कारण भिन्न-भिन्न रूप में परिवर्तित होती रहती है, पर्यायों को धारण करती रहती है, किन्तु नैश्चयिक दृष्टि से आत्मा शुद्ध स्वरूपी होने के कारण अकेली ही है। आत्मचेतना कहती है कि मेरा परिणामरूप श्वसुर तो बालक जैसा भोला है, काल परिणतिरूपी सास बाल कुमारी है और उसके चेतनरूप पतिदेव अभी ममतारूपी झूले में ही सोए हुए हैं। वही पतिदेव को ममतारूपी झूले में झुलानेवाली है। __ वह न विवाहिता है और न कुमारी ही। वह हमेशा कर्मरूप अनेक पुत्रों को जन्म देती रहती है। यद्यपि वह विवाहिता नहीं है, तथापि कृष्ण लेश्या अर्थात् अशुभ अध्यवसाय रूप किसी भी पुरुप को नहीं छोड़ा है जो उसके साथ विषय-कपाय से मुक्त रहा हो। फिर भी वह अब तक ब्रह्मचारिणी ही कहलाती है। पारमार्थिक दृष्टि से कोई भी इसका उपभोग नहीं कर सका है। कहा भी है-'भोगा न भुक्ताः वयमेव भुक्ताः ।' ढाई द्वीप रूपी पलंग पर उसकी सेज बिछी हुई है और इच्छाओं का आकाशरूपी तकिया है। तृष्णारूपी पृथ्वी के छोर को और अनन्त इच्छारूपी आकाश को ओढ़ने की चादर बनाई है, फिर भी उसका पूरा शरीर नहीं बँका, उसकी आशा-तृष्णा शान्त नहीं हुई। __ तीर्थंकर परमात्मा के मुखरूपी गगन-मण्डल में वाणरूपी गाय का प्रकाश हुआ और उसका दूध पृथ्वी पर जमाया। उसका मन्थन सभी ने किया, किन्तु परमतत्त्वरूप अमृत को किसी विरल पुरुष ने ही प्राप्त किया। वह न अपने समतारूपी ससुराल जाती है और न मोह-ममतारूपी पीहर ही। उसने तो अपने चेतनरूप पतिदेव की अविनाश रूपी सेज यहीं पर बिछा दी है। अतः आनन्दघन कहते हैं कि हे सज्जन-सन्तों! सुनो, अन्ततः चेतना चेतन रूपी ज्योति में मिल गई। चेतन और चेतना का द्वैत भाव समाप्त होकर अद्वैत स्थापित हो गया।' १. अवधू ऐसो ज्ञान बिचारी, वामे कोण पुरुष कोण नारी ? बम्भन के घर न्हाती धोती, जोगी के घर चेली। कलमा पढ़ पढ़ भई रे तुरकड़ी, तो आपही आप अकेली ।। १ ॥
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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