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आनन्दघन की विवेचन-पद्धति
११३.
के प्रेम, विरह एवं मिलन की अवस्था के सुन्दर एवं रहस्यपूर्ण रूपक बांधे हैं । ऋषभ जिन स्तवन में ऋषभ जिन परमात्मा को प्रियतम का रूपक देकर निरुपाधिक विशुद्ध प्रेम का चित्रण किया है । इसी तरह, चन्द्रप्रभ जिन स्तवन में साधक की शुद्ध चेतना रूपी नारी अपनी सखी से कह रही है : " चन्द्रप्रभ मुखचन्द सखो मुनै देखण दे । " " सखी श्रद्धे ! अब तो मुझे चन्द्र प्रभु का मुख रूपी चन्द्रमा देखने दे ! यहां 'मुखचन्द' में उपमेय पर उपमान का आरोप होने पर दोनों (मुख और चन्द्र ) में अभेद का बोध होने से रूपक है । विरहावस्था के चित्रण में आनन्दघन ने सर्प, सर्पिणी, हंस, चकवा - चकवी, चातक आदि निसर्ग-जन्तुओं को लेकर भी रूपक बांधे हैं । सर्पिणी का रूपक निम्नलिखित पंक्ति में द्रष्टव्य है : प्रान - पवन विरह-दशा, भअंगनि पीवै हो ।
इसमें यह बताया गया है कि चेतन रूप प्रियतम के अभाव में समता रूप प्रिया के प्राण रूपी वायु को विरहावस्थारूपी सर्पिणी पी रही है । विरह भुयंग निसा समै, मेरी सेजड़ी खूबंदी हो?
पद में विरह रूपी सर्प ने शुद्ध चेतना रूप समता-प्रिया की शैय्या को रौंद कर अस्त-व्यस्त कर दिया है। यहां 'विरह भुयंग' में सर्प का आरोप होने से रूपक है । एक अन्य पद में 'हंस' का रूपक देते हुए आनन्दघन कहते हैं :
तन पंजर झूरइ परयोरे, उड़ि न सके जीउ-हंस | बिरहानल जाला जली प्यारे, पंख मूल निरवंश ॥४
शुद्ध चेतन रूप प्रियतम की समता-प्रिया कह रही है कि एक ओर शरीररूपी पिंजड़े में बद्ध जीवात्मा रूप हंस उड़ नहीं सकता और दूसरो ओर विरहाग्नि की ज्वाला वेग से जल रही है । इस विरहाग्नि की ज्वाला में जीवात्मा रूप हंस के सारे पंख जल गये हैं । इसलिए वह उड़ कर भी आपके पास नहीं आ सकती। यहां 'तन पंजर', 'जीउ हंस' एवं 'विरहानल' आदि में सुन्दर रूपकों का प्रयोग हुआ है ।
१.
२. आनन्दघन ग्रन्थावली, पद २६ ।
चन्द्रप्रभ जिन स्तवन, आनन्दघन ग्रन्थावली ।
८
३. वही, पद ३२ ।
४.
वही, पद २७ ।