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________________ ११२ आनन्दघन का रहस्यवाद स्वाभाविक है । डा० फ्रायड का तो मत ही यही है कि आत्मा की भाषा रूपकों में ही प्रकट होती है । आनन्दघन के रहस्यवाद में प्रयुक्त रूपकों की विवेचना करने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि रूपक किसे कहते हैं ? अभिव्यक्ति में बल और चमत्कार पैदा करने वाले अलंकारों में रूपक भी एक महत्त्वपूर्ण अलंकार है । साहित्य के आचार्यों द्वारा किये गये रूपक के लक्षण पर एक नजर डाल लेना उचित होगा । भामह के अनुसार रूपक का लक्षण है - गुणों की समानता देकर उपमेय का उपमान के रूप में निरूपण करना । दण्डी का रूपक - लक्षण उपमा-सापेक्ष है । रूपक के सम्बन्ध में उनका कथन है कि उपमान और उपमेय का भेद जहां तिरोभूत हो जाय, ऐसी उपमा ही रूपक है ।" उद्भट के मतानुसार 'जिन दो पदों का अभिधा द्वारा कोई सम्बन्ध नहीं, उनमें से एक अप्रधान जो प्रधान के साथ जुड़ता है वह रूपक है । ३ ' मम्मट उपमान और उपमेय के अभेद को रूपक मानते हैं । ' संक्षेप में, रूपक अर्थ उपमान और उपमेय में अभेद की प्रतीति है और इस अभेद - प्रतीति का कारण दोनों के बीच गुण की समानता है । उपमेय पर उपमान का आरोप होने पर पाठक का मन मुख्यरूप से दोनों के अभेद का बोध करता है । सन्त आनन्दघन ने अपनी अनुभूतियों को रूपकों द्वारा अभिव्यक्त किया है । इन्होंने आत्मा और परमात्मा एवं १. २. ३. उपमाने न यत्तत्त्वमुपमेयस्य रूप्यते । गुणानां समतां दृष्टवा रूपकं नाम तद्विदुः ॥ - भामह, काव्यालंकार, २।२१ उपमेव तिरोभूत भेदा रूपकमुच्यते । - दण्डी, काव्यादर्श, २।६६ श्रुत्या सम्बन्धविरहाद्यत्पदेन पदान्तरम् । गुणवृत्ति प्रधानेन युज्यते रूपकं तु तत् ॥ 1 ४. तद्रूपकमभेदो य उपमानोपमेययोः । —उद्भट, काव्यालंकार -सार-संग्रह, १1११ मार्मिक ढंग चेतना - चेतना मम्मट, काव्यप्रकाश, १०।१३९ ।..
SR No.010674
Book TitleAnandghan ka Rahasyavaad
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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