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________________ 272 Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugveer" Personality and Achievements जरूरत नहीं। कर्ता-धर्ता न होने से वह किसी को कुछ देता अथवा किसी से कुछ लेता नहीं है। तब उसकी पूजा-वन्दना क्यों की जाए? मुख्तार साहब ने वीतराग पूजा विरोधियों की भ्रान्तियों का बड़ी तर्कपूर्ण शैली में समाधान प्रस्तुत किया है। मुख्तार साहब पूजा विरोधियों के तर्को को लक्ष्य में रखकर स्वामी समन्तभद्र जो कि वीतराग देवों की पूजा, उपासना, वन्दना के प्रबल पक्षधर हैं और जो स्वयं भी अनेक स्तुति-स्तोत्रों के द्वारा उनकी पूजा में संलग्न रहते थे - के स्वम्भू स्तोत्र का एक उद्धरण प्रस्तुत कर वीतराग-पूजा की सार्थकता पर प्रकाश डाला है। स्वम्भू स्तोत्र का पद्य है - नपूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्त वैरे। तथापि ते पुण्य गुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जवेभ्यः । अर्थात् हे भगवान्, पूजा-वन्दना से आपका कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि आप वीतरागी हैं- राग का अंश भी आपके आत्मा में विद्यमान नहीं है, जिसके कारण किसी की वन्दना-पूजा से आप प्रसन्न होते हैं। इसी तरह निन्दा से भी आपका कोई प्रयोजन नहीं, कोई कितना भी आपको बुरा कहे, गालियाँ दे, परन्तु उस पर आपको जरा भी क्षोभ नहीं आ सकता। परन्तु फिर भी हम जो आपकी पूजा-वन्दनादि करते हैं। उसका ध्येय आपके गुणों का स्मरण-भावपूर्वक अनुचिन्तन जो हमारे चित्त को निर्मल एवं पवित्र बनाता है और पाप मलों को छुड़ाकर चिद्रूप आत्मा को सांसारिक वातावरण से हटाकर स्वस्थ करता है। इस तरह हम उसके द्वारा अपने आत्मा के विकास की साधना करते हैं। मुख्तार साहब कहते हैं कि वीतराग भगवान् के पुण्य-गुणों के स्मरण से पापमल से मलिन आत्मा के निर्मल होने की जो बात कही गई है, वह बड़ी ही रहस्यपूर्ण है। उसमें जैनधर्म के आत्मवाद, कर्मवाद, विकासवाद और उपासनावाद जैसे सिद्धान्तों का बहुत कुछ रहस्य सूक्ष्म रूप से सन्निहित है।
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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