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________________ प जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यकित्व एवं कृतित्व 1 वह उसका सम्यग्दृष्टा नहीं हो सकता है। सम्यग्दृष्टा होने के लिए वस्तु को सब ओर से देखने वाला होना चाहिए। जो मनुष्य किसी वस्तु के एक ही अन्त, अंग, धर्म अथवा गुण को, स्वभाव को देखकर उसे उसी स्वरूप मानता दूसरा रूप स्वीकार नहीं करता और इस तरह अपनी एकान्त धारणा बना लेता है और उसे ही जैसे-जैसे पुष्ट किया करता है। इस प्रकार के एकान्त-ग्राहक व्यक्ति जन्मान्ध व्यक्तियों के समान हाथी के एक ही अंग को सम्पूर्ण हाथी का स्वरूप मानकर झगड़ा करने वालों की तरह आपस में झगड़ते रहते हैं और एक दूसरे से शत्रुता धारण करके जहाँ दूसरों के बैरी बनते हैं, वहीं अपने को वस्तु के समग्र रूप से अनभिज्ञ रखकर अपना भी अहित करते हैं। मुख्तार साहब कहते हैं कि जो अनेकान्त के द्वेषी हैं वे अपने एकान्त के भी द्वेषी हैं। क्योंकि अनेकान्त के बिना वे एकान्त को भी प्रतिष्ठित नहीं कर सकते हैं। जो लोग अनेकान्त का आश्रय लेते हैं वे कभी स्व-पर-वैरी नहीं होते, उनसे पाप नहीं बनते, उन्हें आपदाएं नहीं सताती और वे लोक में सदा उन्नत, उदार तथा जयशील बने रहते हैं। समन्तभद्र-विचार-दीपिका का दूसरा निबन्ध है - वीतराग की पूजा क्यों? इस विषय का आचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार बड़ी तर्क पूर्ण शैली में स्वामी समन्तभद्र की उक्तियों के उद्धरण देते हुए समर्थन करते हैं कि वीतराग देव ही सबसे अधिक पूजा के योग्य हैं। कुछ लोगों की भ्रान्त धारणा है कि जिसकी पूजा की जाती है, वह यदि उस पूजा से प्रसन्न होता है और उस प्रसन्नता के फलस्वरूप पूजा करने वाले का कोई काम बना देता अथवा सुधार देता है तो लोक में उसकी पूजा सार्थक समझी जाती है और पूजा से किसी का प्रसन्न होना भी तभी कहा जा सकता है जब या तो वह उसके बिना अप्रसन्न रहता हो या उससे उसकी प्रसन्नता में कुछ वृद्धि होती हो अथवा उससे उसको कोई दूसरे प्रकार का लाभ पहुंचता हो। परन्तु वीतराग देव के विषय में यह सब कुछ भी नहीं कहा जा सकता - वे न किसी पर प्रसन्न होते हैं, न अप्रसन्न और न किसी प्रकार की कोई इच्छा ही रखते हैं, जिसकी पूर्ति-अपूर्ति पर उनकी प्रसन्नता-अप्रसन्नता निर्भर हो। अत: अन्य मतावलम्बी उपहास पूर्वक कहते हैं कि जब तुम्हारा देव परम वीतराग है, उसे पूजा उपासना की कोई
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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