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214 Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugveer" Personality and Achievements ग्रन्थों से सन्दर्भ हेतु लिये गये हों और बाद में मूल ग्रन्थ के अंग बन गये हों। भाष्यकार ने प्रस्तावना के बीस पेजों में इसका उहापोह किया कि उक्त पद्य क्षेपक नहीं है बल्कि मूल ग्रन्थ के हैं।
(4) कछ विद्वानों ने संदेह का कारण यह भी माना है कि समन्तभद्र स्वामी के अन्य ग्रन्थों में तर्क की प्रधानता पाई जाती है, वह इस ग्रन्थ में प्राप्त नहीं होती। इसका स्पष्टीकरण भाष्यकार मुख्तार सा. ने दिया कि उस समय श्रावकों में श्रद्धाभक्ति की प्रधानता थी। गुरू के उपदेश से श्रावक व्रत ले लिया करते थे। श्रावक धर्म के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं थी।
वस्तुतः तर्क वहाँ होता है, जहाँ विवाद होता है। स्वामी समन्तभद्र ने तर्क का प्रयोग स्व-पर मत के सिद्धान्तों तथा आहारादि विवादग्रस्त विषयों पर ही किया और उनकी परीक्षा के लिए तर्क प्रधान ग्रन्थ लिखे।
परन्तु ऐसा भी नहीं है कि रत्नकरण्ड में कहीं भी तर्क का प्रयोग न किया गया हो। अंगहीन सम्यग्दर्शन को नि:सार बताने के लिए श्लोक 21 दृष्टव्य है। आप्त व आगम की परिभाषा देने के लिए पद्य 8 व 9 लिखे गये जिनमें तर्क का सम्पुट है। इसके अतिरिक्त पद्य नं. 26, 27, 33, 47,48, आदि 20 पद्य और भी हैं जहाँ न्यूनाधिक तर्क शैली का प्रयोग हुआ है।
कुछ श्लोक तर्क-दृष्टि से प्रधान हैं उन्हें सोदाहरण दिया जा रहा है जैसे परमार्थ के 3 गुण विशेष उल्लेखनीय हैं:
(i) उत्सन्न दोष (निर्दोषता) (2) सर्वज्ञता और (3)आगमेशिता।
निर्दोषता के बिना सर्वज्ञता नहीं बनती और सर्वज्ञता के बिना आगमेशिता असम्भव है। पद 5 एवं मंगलाचरण में इन्हीं तीन बातों को बड़ी तर्क शैली में प्रस्तुत किया गया है:
आप्तेनोत्सन्न दोषेण सर्वज्ञेनाऽऽगमेशिना
भेत्तारं कर्ममूमृतां (निर्दोषता), विश्वतत्त्वानां ज्ञाता (सर्वज्ञता) तथा मोक्षमार्गस्य नेता (आगमेशी)