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पं जुगलकिशोर मुख्तार "थुगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व चाहे वे भील, चाण्डाल, म्लेच्छादि मनुष्य, सिंह, सादि पशु, कीड़े-मकोड़े आदि क्षुद्र जन्तु और वनस्पति आदि किसी भी पर्याय में क्यों न हों और साथ ही यह भी लिख दिया कि वहां अभव्य जीवों की उत्पत्ति ही नहीं होती और न अभव्यों को उक्त गिरिराज का दर्शन ही प्राप्त होता है। इस प्रकार लिखने का उद्देश्य ही भट्टारकों का अपने स्वार्थ साधन का था। धीरे-धीरे तीर्थस्थान महन्तों की गद्दियां बन गये और जैनेतर परम्परा में तीर्थों के महात्म्य के समान स्वयं की महत्ता की भावना भी लोगों में भर दी।
सम्यग्दर्शन का विचित्रलक्षण उन्होंने लिखा जो आचार्य प्रणीत ग्रंथों के बिल्कुल विपरीत है यथा
सम्यग्दृष्टेरिदं लक्षणं यदुक्तं ग्रन्थकारकैः। वाक्यं तदेव मान्यं स्यात्, ग्रन्थ वाक्यं न लंघयेत? | 615
अर्थात् ग्रंथकारों ने (ग्रंथों मे) जो भी वाक्य कहा है उसे ही मान्य करना और ग्रंथों के किसी वाक्य का उल्लंघन नहीं करना, सम्यग्दर्शन का लक्षण है जिसकी ऐसी मान्यता अथवा श्रद्धा हो वह सम्यग्दृष्टि है। इस श्लोक में यह जो लक्षण दिया गया है वह पूर्व आचार्यों के बिल्कुल विपरीत ही है जिसमें यह भावना स्पष्ट परिलक्षित होती है कि जो कुछ शिथिलाचारी भट्टारकों ने लिख दिया, उसे शास्त्रों के समान ही प्रामाणिक मानकर पूजा जाये। उनके विरुद्ध कोई लिखने का दुस्साहस ही न करे।
जैन परम्परा में प्रतिपादित कर्म सिद्धान्त के विरुद्ध अनेक मनगढंत बातों को निरुपित किया गया। जैसे एक स्थान पर लिखा है कि म्लेच्छों से उत्पन्न हुए स्त्री-पुरुष मरकर व्रतहीन मनुष्य (स्त्री-पुरुष) होते हैं। यथा
म्लेच्छोत्पन्ना नरा नार्यः मृत्वा हि मगधेश्वरः।
भवत्ति वत होनाश्च इमे वामाश्च मानवाः।। इस विधान के द्वारा ग्रन्थकार ने कर्म सिद्धान्त की एक बिल्कुल ही नई परिभाषा ईजाद कर डाली है क्योंकि जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार म्लेच्छ सन्तानों के लिए न तो मनुष्यगति में जाने का ही कोई नियम है, जिसे सूचित