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Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugveer" Personality and Achievements
धर्म और धन की विचित्र ढंग से तुलना की है। ग्रंथ में पंचमकाल के मनुष्यों को निर्धन बतलाया है, फिर वे बिना धन के व्रत कैसे करेगा। तब तो व्रत का वह फल उनके लिए नहीं बनता। उत्तर में भगवान ने कहा राजन्! यदि पूर्व पापों के उदय से घर में दरिद्र हो तो काय से प्रोषध सहित दोगुना व्रत करना चाहिए। यथा
भवद्भिः कथिता मा निःस्वा हि पंचमोद्भवाः। करिष्यन्ति कथं वृत्तं तद् करते नास्ति तत्फलम्॥ गृहे यदि दरिद्रः स्यात्पूर्वपापोदयति नृपः। कार्येन द्विगुणं कार्यव्रतं पौषधसंयुतम् ॥ 30, 31
व्रतों के अनन्तर धन के खर्च का काम सिर्फ अभिषेक पुरस्सर पूजन के करने और पारण के दिन एक पात्र को भोजन कराने में ही होता है जिसका औसत अनुमान 200 रुपये के करीब होता है। यहां यह भी स्पष्ट किया गया कि यह सब खर्च न उठाकर शुद्ध प्रासुक जल से ही भगवान का अभिषेक कर लिया करे तो वह व्रत का फल नहीं पा सकेगा। धर्माचरण में इस प्रकार धन की यह विचित्र कल्पना करके भोले-भाले श्रावकों को मोक्ष प्राप्ति कराने के ब्याज से कैसे-धन प्राप्ति की सुनियोजित योजनायें निरुपित की, जबकि जैनधर्म में व्रतों का लक्ष्य परिणामों में विशुद्धता लाना है। स्व. पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने समीक्षा में यह लिखा है कि इस व्यवस्था को व्रत विधान कहा जाये या दण्ड विधान अथवा एक प्रकार की दुकानदारी, धन को इतना महत्व दिया जाना जैनधर्म की शिक्षा में नितान्त बाहर है। लगता है भट्टारकों ने धर्म के नाम पर धनार्जन की सुनियोजित योजनायें बनाकर भोले-भाले श्रावकों को इस प्रकार करने को विवश कर दिया।
ध्यान और तप का उपेक्षा दृष्टि से वर्णन किया गया। यहां तक कह दिया कि 'तपो के समूह को और ध्यानों के समूह को मत करो किन्तु जीवन भर बार-बार सम्मेद शिखर का दर्शन किया करो' उसी के एक मात्र पुण्य से दूसरे ही भव में निःसन्देह शिवपद की प्राप्ति होगी।
भव्यत्व की अपूर्व कसौटी के रूप में उन जीवों को भव्य बतला दिया गया है जो सम्मेद शिखर पर स्थित हों अथवा जिन्हें उनका दर्शन हो सके,