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________________ 175 - - पं. बुगलकिसोर मुख्तार "युगबीर"व्यक्तित्व एवं कृतित्व है। मुझे जहाँ तक स्मरण है मैंने किसी को भयभीत भी नहीं किया है। मैं तो अपनी स्वल्पतर विभूति में ही संतुष्ट था। शस्त्रादि रखने की तो बात छोड़ो, मैंने कभी किसी मानव मात्र का विरोध भी नहीं किया है। मैं दीन-अनाथ नदी में स्वच्छन्द होकर क्रीड़ा कर रहा था/अपना मन बहला रहा था। किन्तु धीवर वेशधारी मनुष्य ने मुझ निरपराधी को व्यर्थ ही जाल में फंसाकर रोक लिया है। यदि नदी में मेरा इस प्रकार उछलना-फूंदना उसे अच्छा नहीं लगता था तो मुझे जाल में फंसा लिया, इतना ही पर्याप्त था, किन्तु हे धीवरराज! तुमने मुझे जाल में फंसाकर पहले जल से बाहर खींचा, फिर बाहर आ जाने पर भी मुझे घसीटकर किनारे से दूर ले गये। मैं कहीं उछलकर या जाल तोड़कर बन्धन-मुक्त न हो जाऊँ, इसीलिये तुमने मुझे जमीन पर दे मारा जैसे मैं कोई चेतन प्राणी न होकर किसी काष्ठ या पाषाण रूप अचेतन होऊँ और मुझे जमीन पर घसीटने तथा पडकने से कोई दुःख-दर्द न हो रहा हो। मैंने मानवधर्म के सम्बन्ध में सुना था कि अपराधी यदि दीन-हीन है तो वह वहाँ दण्ड नहीं पाता है। वहाँ अविरोधियों से युद्ध नहीं होता है और वे वध के योग्य भी नहीं होते हैं। मानव धर्म के सम्बन्ध में सुना था कि शूरवीर मनुष्य दुर्बलों की रक्षा करते हैं। वे शस्त्रहीन पर शस्त्र नहीं उठाते है, किन्तु जब मैं यहाँ का विपरीत दृश्य देखता हूँ तो ये सारी बातें मुझे झूठी लगती है। क्योंकि जैसे सौ चूहे खाकर बिल्ली हज करने जाती है, वैसे ही यहाँ हो रहा है। देश में अब धर्म नहीं रहा है। सारी पृथ्वी वीर-विहीन हो गई है अथवा स्वार्थ के वशीभूत होकर मनुष्य कार्य कर रहा है। जो लोग बेगार (जबर्दस्ती निःशुल्क सेवा लेने) को निन्दनीय मानते थे, वे ही अन्यायी ऐसे जघन्य कार्य कर रहे हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है। मछली पर होते हुये अत्याचारों अथवा उसकी दीन-हीनता का छलपूर्वक लाभ उठाने वालों को सम्बोधित करने के व्याज से भारतदेश को पराधीन करके भारतीयों पर छल-कपट पूर्वक अत्याचार कर रहे अंग्रेज-शासकों के प्रति अपनी मनोव्यथा को प्रकट करते हुये श्री मुख्तार सा. कहते हैं कि - हिंसा का व्रत लेकर जो लोग दूसरों को पराधीन करके सता रहे हैं भला वे
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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