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________________ 48 Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugveer" Personality and Achievements (10) श्री गोयलीय जी ने उनकी संपादन कला और कोटि पर अच्छा प्रकाश डाला है। इस कारण उन्हें अनेक विद्वानों का कोप भाजन भी बनना पड़ा। वे अपूर्ण या बिना प्रमाण के कोई लेख प्रकाशित नहीं करते थे। पूरा लेख पढ़ने के बाद उसकी कमियों पर टिप्पणियां भी लिखते थे। 'जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश' नामक ग्रंथ में उनकी विविध कोटि की 26 कृतियों के नामोल्लेख हैं। उसके बाद 1968 तक आपकी 9 कृतिया और प्रकाशित हुई हैं। उन सबका एकत्रित संकलन एक महत्वपूर्ण कार्य होगा। उपाधियां उनकी शोध एवं संपादन कला से प्रभावित होकर वीर शासन जयंती, कलकत्ता ने 1950 में उन्हें 'जैन वाङ्गमयाचार्य' की उपाधि दी थी। उस समय वे 73 वर्ष के थे। डॉ. ज्योतिप्रसाद जी उन्हें 'जैन साहित्य का भीष्म पितामह' मानते हैं। प्रभाकर जी उन्हें पथ-द्रष्टा' मानते हैं। सतीश जी ने उन्हें 'आचार्य' कहा है। कुछ लोगों ने प्रारम्भ में उन्हें 'धर्मद्रोही' की उपधि भी दी थी। आज के उपाधि एवं सम्मान बहुल युग में उनके लिए ये पदवियां नगण्य ही मानी जावेगी। वस्तुतः परंपरापोषी समाज प्रगतिशील विचारकों एवं संस्कृति संवर्धकों के प्रति उपेक्षा भाव ही रखता है । वह तो परंपरापोषकों को ही सम्मानित करता है। उसे संरक्षण में रुचि है, संवर्धन में नहीं। उदाहरणार्थ, मेरे ही तुलनात्मक लेख हस्तिनापुर, अहमदाबाद, सहारनपुर एवं किशनगढ़ आदि के विवरणों में प्रकाशित नहीं हुए। यही कारण है कि पूर्व और पश्चिम जगत की विद्वत्मंडली में दिगम्बर जैन धर्म की प्रतिष्ठा नगण्य है। यह उन्नत वने, यही कामना है, यही युगबोध है और यही युगवीर का संदेश है। सन्दर्भ 1. जैन, नंदलाल : पं. जगन्मोहन लाल शास्त्री साधुवाद ग्रंथ, रीवा, म प्र पेज 27 2 गोयलीय, अयोध्याप्रसाद : जैन जागरण के अग्रदूत, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, 1956 पे. 240
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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