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________________ कारिका 150] अन्त्य-मंगल निःशंकितादि गुणोंसे विभूपित हुई दृष्टि उन्हें पवित्र करे और उनके गुरुकुलको ऊँचा उठाकर उसकी प्रतिष्ठाको बढ़ानेमें समर्थ होवे, यह उनकी तीसरी भावना है / दृष्टि-लक्ष्मी अपने इन तीनों ही रूपोंमें जिनेन्द्र भगवानके चरण-कमलों अथवा उनके पदवाक्योंकी ओर वरावर देखा करती है और उनसे अनुप्राणित होकर सदा प्रसन्न एवं विकसित हुआ करती है / अतः यह दृष्टिलक्ष्मी सच्ची भक्तिका ही सुन्दर रूप है। सुश्रद्धामूलक इस सच्ची सविवेक-भक्तिसे मुखकी प्राति होती है, शुद्धशीलतादि सद्गुणोंका संरक्षण-संवर्धन होता है और आत्मामें उत्तरोत्तर पवित्रता श्राती है। इसीसे स्वामी समन्तभद्रन ग्रन्थके अन्तमें उस भक्तिदेवीका बड़े ही अलंकारिक रूपमें गौरवके साथ म्मरण करते हुए उसके प्रति अपनी मनोभावनाको व्यक्त किया है / अपने एक दूसरे ग्रन्थ 'युक्त्यनुशासन' के अन्तमं भी उन्होंने वीर म्नुनिको समाप्त करते हुए उस भक्ति का म्मरण किया है और 'विधेया में भक्तिं पथि भवत एवाऽप्रतिनिधी' इस वाक्यक द्वारा वीरजिनेन्द्रग्स यह प्रार्थना अथवा भावना की है कि आप अपने ही मार्गमें, जिसकी जाड़का दूसरा कोई निर्वाध मार्ग नहीं, मेरी भक्तिको सविशेषरूपस चरितार्थ करो-आपके मार्गकी अमोघता और उससे अभिमत फलकी सिद्धि को देखकर मेरा अनुराग ( भक्तिभाव ) उसके प्रति उत्तरोत्तर बढ़े, जिससे में भी उसी भागका पूर्णतः आराधना-साधना करता हुग्रा कमशत्रुओंको सेनाको जीतनमें समर्थ होऊँ और निश्रेयस ( माक्ष) पदको प्राप्त करके सफल मनारथ हो सकें। इस प्रकार श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्य-विचित समीचीन-धर्मशास्त्र अपरनाम रत्नकरण्ड-उपासकाध्य पन में श्रावकादवर्णन नामका सप्तम अध्ययन समाप्त हुया / / 7 / /
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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