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________________ 166 समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०७ करती है, शुद्धशीलाके रूपमें उमी प्रकार मेरी रक्षा-पालना करो जिस प्रकार कि शुद्धशीला माता पुत्रकी रक्षा-पालना करती है और गुणाभूपाके रूपमें उसी प्रकार मुझे पवित्र करो जिस प्रकार कि गुणभूपा कन्या कुलको पवित्र करतो है-उसे ऊँचा उठाकर उसकी प्रतिष्ठाको बढ़ाती है।' __ व्याख्या-यह पद्य अन्त्य मंगलके रूपमें है / इसमें ग्रन्थकारमहादय स्वामी समन्तभद्रने जिस लक्ष्मीक लिए अपनेको मुखी करने आदिकी भावना की है वह कोई सांसारिक धन-दौलत नहीं है, बल्कि वह सद्दृष्टि है जो ग्रन्थमं वर्णित धर्मका मूल प्राण तथा आत्मोत्थानकी अनुपम जान है और जो सदा जिनेन्द्रदेवके चरण कमलोंका-उनके आगमगत पद-वाक्योंकी शोभाकानिरीक्षण करते रहनेसे पनपती, प्रसन्नता धारणा करती और विशुद्धि एवं वृद्धि को प्राप्त होती है। स्वयं शोभा-सम्पन्न होनेसे उसे यहाँ लक्ष्मीकी उपमा दी गई है। उस दृष्टि-लक्ष्मीके तीन रूप हैं ---एक कामिनीका, दूसरा जननीका और तीसरा कन्याका, और ये क्रमशः सुख भूमि, शुद्धशीला तथा गुणभूपा विशेपणसे विशिष्ट हैं। कामिनीक रूपमें स्वामीजीने यहाँ अपनी उस दृष्टि-सम्पत्तिका उल्लेख किया है जो उन्हें प्राप्त है, उनकी इच्छाओंकी पूर्ति करती रहती और उन्हें सुखी बनाये रखती है। उसका सम्पक बराबर बना रहे, यह उनकी पहली भावना है। जननीके रूपमें उन्होंने अपनी उस मूलदष्टिका उल्लेख किया है जिससे उनका रक्षण-पालन शुरू से ही होता रहा है और उनकी शुद्धशीलता वृद्धिको प्राप्त हुई है / वह मूल दृष्टि आगे भी उनका रक्षणपालन करती रहे, यह उनकी दूसरी भावना है / कन्याके रूपमें स्वामीजीने अपनी उस उत्तरवर्तिनी दृष्टिका उल्ले व किया है जो उनके विचारोंसे उत्पन्न हुई है, तत्त्वोंका गहरा मन्यन करके जिसे उन्होंने निकाला है और इसलिये जिररके वे स्वयं जनक हैं। वह
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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