________________ कारिका 150] धर्मफलका उपसंहार : अन्त्यमंगल 165 जिस भव्य-जीवने अपने आत्माको निर्दापविद्या, निर्दोपदृष्टि तथा निर्दोपक्रियारूप रत्नोंके पिटारके भाव परिणत किया है-अपने प्रात्मामें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयधर्मका आविर्भाव किया है----उसे तीनों लोकों में सर्वाधिसिद्धि-धर्मअर्थ-काम-मोक्षरूप सभी प्रयोजनोंकी सिद्धि रूप स्त्री-पतिको स्वयं वरण करने की इच्छा रखनेवाली ( स्वयंवरा) कन्याकी तरह स्वयं प्राप्त हो जाती है-उक्त सर्वार्थसिद्धि उसे अपना पति बनाती है अर्थात् वह चारों पुरुषार्थोका स्वामी होता है----उसका प्राय: कोई भी प्रयोजन सिद्ध हुए बिना नहीं रहता। व्याख्या-यहाँ सस्यम्दशन, सम्यज्ञान और सन्यचारितरूप रत्नत्रयधमके धारीको संक्षेपमें साथसिद्धिका स्वामी सूचित किया है, जो बिना किसी विशेष प्रयामके स्वयं ही उस प्राप्त हो जाती है और इस तरह धमक सार फनका उपसंहार करते हुए उस चतुराईम एक ही सूत्रमें गंथ दिया है / साथहा ग्रन्थका दूसरा नाम 'रत्नकरण्ड' है यह भी श्लेपालंकार के द्वारा मचित कर दिया है। सुखयतु मुखभूमिः कामिनं कामिनीव सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्त / कुलमिव गुणभपा कन्यका संधुनीताजजिन-पति-पद-पद्म-प्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मीः१५॥१५०|| इति श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्य-विरचित समीचीनधर्मशास्त्रे रत्नकरण्डा पर नाम्नि उपासकाध्ययन श्रावकाद-वर्णन नाम सप्तममध्ययनम् // 7 // 'जिनेन्द्र के पद-वाक्यरूपी कमलीको देखनवाली दृष्टिलक्ष्मी ( सम्यग्दर्शनसम्पत्ति ) मुख-भूमिक रूपमं मुझे. उसी प्रकार सुखी करो जिस कार कि सुखभूमि-कामिनी कामीको सुखी अन्त्य-मंगल