________________ 162 समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०७ का धारक होता है-अधूरी छोटी चादर (शाटक) मथवा कोपीन-मात्र धारण करता है-वह 'उत्कृष्ट' नामका-ग्यारहवें पद (प्रतिमा)का धारक सबसे ऊँचे दर्जेका-श्रावक होता है।' ___व्याख्या-यहाँ मुनिवनको जानेकी जो बात कही गई है वह इस तथ्यको सूचित करती है कि जिस समय यह ग्रन्थ बना है उस प्राचीनकालमें जैन मुनिजन वनमें रहा करते थे-चैत्यवासादिकी कोई प्रथा प्ररम्भ नहीं हुई थी। घरसे निकलकर तथा मुनिवनमें जाकर ही इस पदके योग्य सभी व्रतोंको ग्रहण किया जाता था जो व्रत पहलेसे ग्रहण किये होते थे उन्हें फिरसे दोहराया अथवा नवीनीकृत किया जाता था। व्रत-ग्रहणकी यह सब क्रिया गुरुसमीपमें-किसीको गुरु बनाकर उसके निकट अथवा गुरुजनोंको साक्षी करके उनके सानिध्यमें की जाती थी। आजकल मुनिजन अनगारित्व धर्मको छोड़कर प्रायः मन्दिरोंमठों तथा गृहोंमें रहने लगे हैं अतः उनके पास वहीं जाकर उनकी साक्षीसे अथवा अर्हन्तकी प्रतीकभूत किसी विशिष्ट जिनप्रतिमाके सम्मुख जाकर उसकी साक्षीसे इस पदके योग्य व्रतोंको ग्रहण करना चाहिये। __इस पदधारीके लिये 'भैल्यासनः' 'तपस्यन्' और 'चेलखण्डधरः' ये तीन विशेषण खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य हैं। पहला विशेषण उसके भोजनकी स्थितिका, दूसरा साधनाके रूपका और तीसरा बाह्य वेषका सूचक है / वेषकी दृष्टिसे वह एक वस्त्रखण्ड का धारक होता है, जिसका रूप या तो एक ऐसी छोटी चादरजैसा होता है जिससे पूरा शरीर का न जा सके-सिर ढका तो पैरों आदिका नीचेका भाग खुल गया और नीचेका भाग ढका तो सिर आदिका ऊपरका भाग खुल गया-और या वह एक लंगोटीके रूपमें होता है जो कि उस वस्त्रखण्डकी चरम स्थिति है / ‘भैक्ष्य' शब्द भिक्षा और 'भिक्षा-समूह' इन दोनों ही