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________________ कारिका 147] उत्कृष्ट-श्रावक-लक्षण अर्थो में प्रयुक्त होता है * प्रभाचन्द्रने अपनी टीकामं 'भिक्षाणां समूहो भैक्ष्यं' इस निरुक्तिके द्वारा 'भिक्षासमूह' अर्थका ही ग्रहण किया है और वह ठीक जान पड़ता है। क्योंकि स्वामी समन्तभद्रको यदि 'भिक्षासमूह' अर्थ अभिमत न होता तो वे मीधा भिक्षाशन:' पद ही रखकर सन्तुष्ट हो जाते-उतनेमे ही उनका काम चल जाता / उसके स्थान पर 'भक्ष्यासनः' जैमा क्लिप्ट और भारी पद रखने की उन-जैसे सूत्रात्मक लेखकोंको जरूरत न होती-खास कर ऐसी हालत में जव कि छन्दादिकी दृष्टिसे भी वैसा करनेकी ज़रूरत नहीं थी। श्रीकुन्दबुन्दाचार्यने आपने सुनपाहुडम, उत्कृष्ट श्रावकके लिंगका निर्देश करते हुए, जो उसे 'भिवं ममेड पत्तो जैसे बाक्यके द्वारा पात्र हाथ में लेकर भिक्षाक लिये भ्रमण करनेवाला लिखा है उससे भी, प्राचीन समयमें, अंजक घरोंसे भिक्षा लेनेकी प्रथाका पता चलता है। भ्रामरी वृत्ति-हारा अनेक घरोंसे भिक्षा लेनक कारगग किमीको कष्ट नहीं पहुँचता, व्यर्थ के आडम्बरको अवसर नहीं मिलता और भोजन भी प्रायः अनुद्दिष्ट मिल जाता है / 'तपस्गन' पद उस वाह्याभवान्तर तपश्चरगाका द्योतक है जो कर्मों का निर्मलन करके आत्मविकासको सिद्ध करने के लिये यथाशक्ति किया जाना है और जिसमें अनशनादि बाह्य नपश्चरणों की अपेक्षा स्वाध्याय नथा ध्यानादिक अभ्यन्तर तपोंका अधिक महत्व प्राप्त है। वाह्य तप सदा अभ्यन्तर तपकी वृद्धिकं लिये किये जाने हैं। ___ यहाँ इस व्रतधारीके लिये बहिष्टविरत या तुल्लक-जैसा कोई नाम न देकर जो 'उत्कृष्टः' पदका प्रयोग किया गया है वह भी अपनी खास विशेषता रखता है और इस वातको लूचित करना है कि स्वामी समन्तभद्र अपने इस व्रतीको शुल्लकादि न कहकर * "भिक्षैव तत्समूहो वा अरण'-वामन शिवराम एप्टेंकी संस्कृतइंगलिश डिक्शनरी।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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