________________ Jटापपराएर कारिका 146-47] उत्कृष्ट-श्रावक-लक्षण नवमपदको ग्रहण करते हुए लिया गया था। इस पदमें दूसरोंको उनके करने-करानेकी अनुमति आज्ञा अथवा सलाह देनेका भी निपेध है / 'परिग्रह' पदमें दसों प्रकार के सभी बाह्य परिग्रह शामिल हैं और 'ऐहिकेषु कर्मसु' इन दो पदोंम आरम्भ तथा परिग्रहसे भिन्न दूसरे (विवाहादि-जैसे) लौकिक कार्योंका समावेश है ---- पारलौकिक अथवा धार्मिक कार्योंका नहीं। इन लौकिक कार्यो करने-कराने में इस पदका धारी श्रावक जब अपनी कोई अनुमति या मलाह नहीं देता तब कहकर या आदेश देकर करानेको तो बात ही दूर है / परन्तु पारलौकिक अथवा धार्मिक कार्याक विपयमें उसके लिए ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है.--उनमें वह अनुमति दे सकता है और दूसरोंसे कहकर उन्हें करा भी सकता है / यहाँ इस पदधारीके लिये 'समधी:' पदका प्रयोग अपना खास महत्व रखता है और इस बातको सूचित करता है कि वह दुसरोंके द्वारा इन आरम्भ-परिग्रह तथा ऐहिक कोंक होने-नहोने में अपना समभाव रखता है। यदि यह समभाव न रक्खे तं? उसे राग-द्वेपमें पड़ना पड़े और तब अनुमतिका न देना उसके लिये कठिन हो जाय / अतः समभाव उसके इस व्रतका बहुत बड़ा रक्षक है। * उत्कृष्टश्रावक-लक्षण गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगा / *भैयाशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चलखण्डधरः // 12 // 147 // ___ 'जो श्रावक घरसे मुनिवनको जाकर और गुरुके निकट व्रतोंको ग्रहण करके तपस्या करता हुआ भैय-भाजन करता है..... भिक्षाद्वारा ग्रहीत भोजन लेता अथवा अनेक पगेम मिक्षा-भाजन कर अन्तके घर या एक स्थान पर बैठकर उसे खाता है-और वस्त्रखण्ड * "भक्षाशन:' इति पाठान्तरम् /