________________ 160 समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०७ ___ व्याख्या-यहाँ जिन दश प्रकारकी बाह्य वस्तुओंका सांकेतिक रूपमें उल्लेख है वे वही वाह्य परिग्रह हैं जिनका परिग्रहाणुव्रतग्रहणके अवसर पर अपने लिये परिमाण किया गया था और जो अपने ममत्वका विषय बने हुए थे। उन्हींको यहाँ 'परिचित्तपरिग्रह' कहा गया है और उन्होंस विरक्ति धारणका इस नवमपदमें स्थित श्रावकके लिए विधान है। उसके लिए इतना ही करना होता है कि उन चित्तमें बसी हुई परिग्रहरूप वस्तुओंसे ममत्वको-मेरापनके भावको--हटाकर निर्ममत्वके अभ्यासमें लीन हुआ जाय। इसके लिए 'स्वस्थ' और 'सन्तोषतत्पर' होना बहुत ही आवश्यक है। जब तक मनुष्य अपने आत्माको पहचानकर उसमें स्थित नहीं होता तव तक पर-पदार्थोंमें उसके मनका भटकाव बना रहता है / वह उन्हें अपने समझकर उनके ग्रहणकी आकांक्षाको बनाए रखता है। इसी तरह जब तक सन्ताप नहीं होता तब तक परिग्रहका त्याग करके उसे मुख नहीं मिलता और सुख न मिलनेसे वह त्याग एक प्रकारसे व्यर्थ हो जाता है। अनुमतिविरत-लक्षण अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे वैहिकेष कर्मसु वा / नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः // 146 / / जिसकी निश्चयसे आरम्भमें-कृष्यादि सावद्यकर्मोमेंपरिग्रहमें-धन-धान्यादिरूप दस प्रकारके बाह्य पदार्थोंके ग्रहणादिकमें --और लौकिक कार्योभ-विवाहादि तथा पंचमूनादि जैसे दुनियादारीके कामोंमें-अनुमति--करने-करानकी सलाह, अनुज्ञा, आज्ञा--नहीं होती वह रागादि-रहित-बुद्धिका धारक 'अनुमतिविरत' नामकादशमपदस्थित---श्रावक माना गया है।' व्याख्या-यहाँ 'प्रारम्भ' पदके द्वारा उन्हीं प्रारम्भोंका ग्रहण है जो प्राणातिपातके हेतु हैं और जिनके स्वयं न करनेका व्रत