________________ कारिका 145] परिचित्तपरिग्रहविरत-लक्षण 186 है। तब क्या शुद्ध अग्नि-जलसे कूकर आदिके द्वारा वह अपना भोजन भी स्वयं प्रस्तुत नहीं कर सकता ? __दूसरा विशेषण प्रारम्भोंके त्यागकी दृष्टिको लिये हुए है और इस बातको बतलाता है कि सेवा-कृषि-वाणिज्यादिके रूपमें जो आरम्भ यहाँ विवक्षित हैं उनमें वे ही प्रारम्भ त्याज्य हैं जो प्राणघातके कारण हैं जो किसीके प्राणघातमें कारण नहीं पड़ते वे सेवादिक आरम्भ त्याज्य नहीं हैं। और इससे यह स्पष्ट फलित होता है कि इन सेवादिक आरम्भोंके दो भेद हैं-एक वे जो प्राणघातमें कारण होते हैं और दूसरे वे जो प्राणघातमें कारण नहीं होते / अतः विवक्षित आरम्भोंमें विवेक करके उन्हीं आरम्भोंको यहाँ त्यागना चाहिये जो प्राणातिपातके हेतु होते हैं---शेष प्रारम्भ जो विवक्षित नहीं हैं तथा जो प्राणघातके हेतु नहीं उनके त्यागकी यहाँ कोई बात नहीं है / इस विशेषरणके द्वारा ब्रतीके विवेकको भारी चुनौती दी गई है। ___ परिचित्तपरिग्रहावरत-लक्षण बाह्येषु दशसु वस्तुष ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः / परिचित्तपरिग्रहाद्विरतः / / 10 / 14 / / 'जो दस प्रकारकी बाह्य वन्तुओं, ....धन-धान्यादि परिग्रहोंमेंममत्वको छोड़कर निर्ममभावमें रत रहता है, स्वात्मम्थ है--बाह्य पदार्थोको अपने मानकर भटकता नहीं-और परिग्रहकी आकांक्षासे निवृत्त हुआ संतोप-धारणमें तत्पर है वह 'परिचित्तपरिग्रहविरन' ---सब बोरसे चित्त में बसे हाः परिग्रहोंसे विरक्त--6वें पदका अधिकारी श्रावक है।' | "प्रक्षालनं च वस्त्रारणां प्रासुकेन जलादिना / कुर्याद्वा स्वस्य हस्ताभ्यां कारयेहा सर्मिणा // " --~-लाटीसंहिता