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________________ 188 समीचीन-धमशास्त्र [अ०७ और प्राचार्य वसुनन्दीने एकमात्र 'गृहारम्भ' कहकर ही छुट्टी पा ली है / ऐसी हालतमें 'प्रमुख' शब्दके द्वारा दूसरे किन प्रारम्भोंका ग्रहण यहाँ ग्रन्थकारमहोदयको विवक्षित रहा है, यह एक विचारणीय विषय है। हो सकता है कि उनमें शिल्प और पशुपालन-जैसे प्रारम्भोंका भी समावेश हो; क्योंकि कथनक्रमको देखते हुए प्रायः आजीविका-सम्बन्धी आरम्भ ही यहाँ विवक्षित जान पड़ते हैं। मिलोंके महारम्भोंका तो उनमें सहज ही समावेश हो जाता है और इसलिए वे इस व्रतधारीके लिए सर्वथा त्याज्य ठहरते हैं। रही अब पंचसूनाओंकी बात, जो कि गृहस्थ-जीवनके अंग हैं; सूक्ष्मदृष्टिसे यद्यपि उनका समावेश आरम्भोंमें हो जाता है परन्तु इसी ग्रन्थमें वैयावृत्त्यका वर्णन करते हुए 'अप-सूनाऽऽरम्भाणामार्याणामिष्यते दान' वाक्यमें प्रयुक्त हुए 'अपसनारम्भाणां' पदमें सूनाओंको अारम्भोंसे पृथक रूपमें ग्रहण किया है और इससे यह बात स्पष्ट जानी जाती है कि स्थूलदृष्टिसे सूनाओंका आरम्भों में समावेश नहीं है। तब यहाँ विवक्षित प्रारम्भोंमें उनका समावेश विवक्षित है या कि नहीं, यह बात भी विचारणीय हो जाती है और इसका विचार विद्वानोंको समन्तभद्रकी दृष्टिसे ही करना चाहिये / कवि राजमल्लजीने इस प्रतिमामें अपने तथा परके लिये की जानेवाली उस क्रियाका निषेध किया है जिसमें लेशमात्र भी प्रारम्भ होक, परन्तु स्वयं वे ही यह भी लिखते हैं कि वह पने वस्त्रोंको स्वयं अपने हाथोंसे प्रासुक जलादिके द्वारा / सकता है तथा किसी साधर्मीसे धुला सकता * "बहुप्रलपितेनालमात्मार्थ वा परात्मने / यत्रारम्भस्य लेशोस्ति न कुर्यात्तामपि यम् ॥'लाटीसंहिता
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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