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________________ कारिका 144] आरम्भविरत-लक्षण 187 प्रारम्भविरत-लक्षण सेवा-कृषि-वाणिज्य-प्रमुखादारम्भतो व्युपारमति / प्राणातिपातहेतोर्योऽसावारम्भ-विनिवृत्तः // 6 // 144 // __'जो श्रावक ऐसी सेवा और वाणिज्यादिरूप आरम्भ-प्रवृत्तिसे विरक्त होता है जो प्राणपीडाकी हेतुभूत है वह 'प्रारम्भत्यागी' ( 83 पदका अधिकारी ) श्रावक है।' / व्याख्या--यहाँ जिस प्रारम्भसे विरक्ति धारण करने की बात कही गई है उसके लिये दो विशेषण-पदोंका प्रयोग किया गया है -एक 'सेवा-कृषि-वाणिज्य-प्रमुखात' और दूसरा 'प्राणातिपातहताः' / पहले विशेषणमें आरम्भके कुछ प्रकारों का उल्लेख है, जिनमें सेवा, कृषि और वाणिज्य य तीन प्रकार तो स्पष्ट रूपसे उल्लेखित हैं, दूसरे और कौनसे प्रकार हैं जिनका संकेत 'प्रमुख' शब्दके प्रयोग-द्वारा किया गया है, यह अस्पष्ट है / टीकाकार प्रभाचन्दने भी उसको स्पष्ट नहीं किया। चामुगडरायने अपने चारित्रसारमें जहाँ इस ग्रन्थका बहुत कुछ शब्दशः अनुमरगा किया है वहाँ वे भी इसके स्पष्टीकरणको छोड़ गए हैं * / पंडित आशाधरजीका भी अपने सागारधर्मामृनकी टोकामें ना ही हाल है / / 'अनुप्रेक्षा' के कर्ता स्वामी कार्तिकेय और लाटीसंहिताके कर्ता कविराजमल्ल आरम्भके प्रकार-विषयमें मौन हैं * उन्होंन इतना ही लिखा है कि. ---- ''प्रारम्भविनिवृतोऽसिमसिकृषि-वाणिज्य-प्रमुखादारम्भात् प्राणातिपातहतोविरतो भवति / " यहाँ सेवाकी जगह असि-मसि-कर्मोकी सूचना की गई है। शेष सब ज्योंक त्यों है। + वे अपने 'कृष्यादीन्' पदकी व्याख्या करते हुए लिगते हैं--- 'कृषि-सेवा-वारिणज्यादि-व्या .रान्' /
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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