________________ 186 समीचीन-धर्मशाख इन्द्रियोंका जो संयम बन आता है और उससे आत्माका जो विकास सधता है उसकी तो बात ही अलग है। इसीसे इस पदके पूर्व में बहुधा लोग अनादिके त्यागरूपमें स्त्रण्डशः इस व्रतका अभ्यास किया करते हैं। ब्रह्मचारि-लक्षण मलवीजं मलयोनि गलन्मलं पूति गन्धि बीभत्सम् / पश्यन्नङ्गमनङ्गाद्विग्मति यो ब्रह्मचारी सः॥८॥१४३ / / 'जो श्रावक शरीरको मलबीज-~-शुक्रशोरिणतादिमलमय कारगगोंसे उत्पन्न हुअा-मलयोनि-मलका उत्पत्तिस्थान--, गलन्मल-मलका झरना--, पूति---दुर्गन्धयुक्त-और बीभत्स---पृणात्मक-देखता हुआ कामसे--मैथुनकर्मसे-विरक्ति धारण करता है वह 'ब्रह्मचारी' पद ( सातवी प्रतिमा) का धारक होता है।' व्याख्या-त्यहाँ कामके जिस अंगके साथ रमण करके संसारी जीव आत्म-विस्मरण किये रहते हैं उसके स्वरूपका अच्छा विश्लेपण करते हुए यह दर्शाया गया है कि वह अंग विवेकी पुरुषोंके लिए रमने योग्य कोई वस्तु नहीं-वह तो घणा की चीज है, और इसलिये उसे इस घृणात्मक दृष्टि से देखता हुआ जो मैथुन-कर्मसे अरुचि धारण करके उस विषयमें सदा विरक्त रहता है वह 'ब्रह्मचारी' नामका सप्तम-प्रतिमा धारक श्रावक होता है। वस्तुतः कामांगको जिस दृष्टिसे देखनेका यहाँ उल्लेख है वह बड़ा ही महत्वपूर्ण है। उस दृष्टिको आत्मामें जागृत और तदनुकूल भावनाओं संभावित एवं पुष्ट करके जो ब्रह्मचारी बनता है वह ब्रह्मचर्यपदमें स्थिर रहता है, अन्यथा उसके भ्रष्ट होनेकी संभावना बनी रहती है / इस पदका धारी स्व-परादि रूपमें किसी भी स्त्रीका कभी सेवन नहीं करता है। प्रत्युत इसके, ब्रह्ममें-शुद्धात्मामें-अपनी चर्याको बढ़ाकर अपने नामको सार्थक करता है।