________________ कारिका 142] रात्रिभोजनविरत-लक्षण 185 नहीं होता। अप्रासुक कैसे प्रासुक बनता अथवा किया जाता है इसका कुछ विशेष वर्णन 85 वीं कारिकाकी व्याख्यामें किया जा चुका है। रात्रिभोजनविरत-लक्षण अन्नं पानं खाद्य : लेह्यं नाऽश्नाति यो विभावर्याम् / स च रात्रिभुक्तविरतः * सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः // 142 // जो श्रावक रात्रिके समय अन्न--अन्न तथा अन्नादिनिर्मित या विमिश्रित भोजन-पान-जल-दुग्ध-रसादिक, खाद्य --अन्नभिन्न दूसरे खानेके पदार्थ जैसे पेड़ा, बर्फी, लौजात, पाक, मेवा, फल, मुरब्बा इलायची. पान, सुपारी आदि; और लेह्य-चटनी. शर्बत, रबड़ी आदि (इन चार प्रकारके भोज्य पदार्थो) को नहीं खाता है वह प्राणियोंमें दयाभाव रखनेवाला 'रात्रिभुक्तविरत' नामके छठे पदका धारक श्रावक होता है।' व्याख्या--यहाँ ‘सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः' पदका जो प्रयोग किया गया है वह इस व्रतक अनुष्ठानमें जीवों पर दयादृष्टिका निर्देशक है; और 'सत्वेषु' पद चूंकि बिना किसी विशेषणके प्रयुक्त हुआ है इसलिए उसमें अपने जीवका भी समावेश होता है। रात्रिभोजनके त्यागसे जहाँ दूसरे जीवोंकी अनुकम्पा बनती है वहाँ अपनी भी अनुकम्पा सधती है-रात्रिको भोजनकी तलाशमें निकले हुए अनेकों विपैले जन्तुओंके भोजनके साथ पेट में चले जानेसे अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न होकर शरीर तथा मनकी शुद्धिको जो हानि पहुँचाते हैं उससे अपनी रक्षा होती है। शेष + 'खाद्य के स्थानपर कहीं कहीं 'स्वाद्य' पाट मिलता है जो समुचित प्रतीत नहीं होता। टीकाकार प्रभाचन्द्रने भी 'खाद्य' पदका ग्रहण करके उसका अर्थ 'मोदकादि' किया है जिन्हें अन्नभिन्न समझना चाहिए। * 'रात्रिभक्तविरतः' इति पाठान्तरम् /