________________ समीचीन-धर्मशास्त्र उपवासके दिन जिन कार्योंके न करनेका तथा जिन कार्योंके गया है उनका वह विधि-निषेध यहाँ भी 'प्रोषध-नियम-विधायी' पदके अंतर्गत समझना चाहिये। सचित्तविरत-लक्षण मूल-फल-शाक-शाखा-करीर-कन्द-प्रसून-बीजानि / नाऽऽमानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः // 141 'जो दयालु ( गृहस्थ ) मूल, फल, शाक, शाखा (कोंपल ) करीर ( गांठ-करों) कन्द, फूल और बीज, इनको कच्चे ( अनग्निपक्व आदि अप्रासुक दशामें) नहीं खाता वह 'सचित्तविरत' पदकापांचवीं प्रतिमाका-धारक श्रावक होता है।" व्याख्या-यहाँ 'अामानि' और 'न अत्ति' ये दो पद खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य हैं / 'प्रामानि' पद अपक्व एवं अप्रासुक अर्थका द्योतक है और 'न अत्ति' पद भक्षणके निषेधका वाचक है, और इसलिये वह निषेध उन अप्रासुक (सचित्त) पदार्थोके एकमात्र भक्षणसे सम्बन्ध रखता है-स्पर्शनादिकसे नहीं है जिनका इस कारिकामें उल्लेख है। वे पदार्थ वानस्पतिक हैं, जलादिक नहीं और उनमें कन्द-मूल भी शामिल हैं। इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि ग्रन्थकारमहोदय स्वामी समन्तभद्रकी दृष्टि में यह श्रावकपद (प्रतिमा) अप्रासुक वनस्पतिके भक्षण वनस्पतिके भक्षणका निषेध नहीं है / 'प्रासुकस्य भक्षणे नो पापः' + भक्षणेऽत्र सचित्तस्य नियमो न तु स्पर्शन / तत्स्वहस्तादिना कृत्वा प्रासुकं चाऽत्र भोजयेत् / / --लाटीसंहिता 7-17