________________ कारिका 140] प्रोषधाऽनशन-लक्षण के रूपमें यहाँ रखना क्या अर्थ रखता है ? यह एक प्रश्न है / इसका समाधान इतना ही है कि प्रथम तो व्रत-प्रतिमाम ऐसा कोई नियम नहीं है कि प्रत्येक मासकी अष्टमी-चतुर्दशीको यह उपवास किया ही जावे--वह वहाँ कस महीने में अथवा किसी महीनेके किसी पर्व-दिनमें स्वेच्छासे नहीं भी किया जा सकता है; परन्तु इस पद में स्थित होने पर, शक्ति के रहते, प्रत्येक महीनेके चारों ही पर्व-दिनोंमें नियमसे उसे करना होता है केवल शक्तिका वास्तविक अभाव ही उसके न करने अथवा अधूरे रूपसे करनेम यहाँ एकमात्र कारण हो सकता है। दूसरे वहाँ ( दूसरी प्रतिमामें) वह शीलके रूपमें--अणुव्रतांकी रक्षिका परिधि (वाड़) की अवस्थामें--थित है और यहाँ एक स्वतन्त्र व्रतके रूपम(म्वयं शस्यके समान रक्षणीयस्थितिम) परिगणित है / यही दोनों स्थानाका अन्तर है। ___कवि राजमल्लजीने 'लाटीसंहिता' में अन्तरकी जो एक बात यह कही है कि दुमरी प्रतिमा में यह बा मातिचार है और यहाँ निरतिचार है (सातिचारं च तत्र स्यादत्राऽतीचार-वर्जितं ) वह स्वामी समन्तभद्रकी दृष्टि से कुछ संगत मालूम नहीं होती; क्योंकि उन्होंने दूसरी प्रतिमामें "निरतिक्रमणं' पदको अलगसे 'अणुव्रतपंचकं' और 'शीलसप्तकं' इन दोनों पदोंके विशेषणरूपमें रक्खा है और उसके द्वारा अणुव्रतोंकी तरह सप्तशीलोंको भी निरतिचार बतलाया है। यदि व्रतप्रतिमामें शीलव्रत निरतिचार नहीं है तो फिर देशावकाशिक, वैयावृत्य और गुणव्रतोंकी भी निरतिचारता कहाँ जाकर सिद्ध होगी? कोई भी पद (प्रतिमा) उनके विधान को लिए हुए नहीं है। पं० आशाधरजीने भी व्रतप्रतिमामें बारह व्रतोंको निरतिचार प्रतिपादन किया है / / / यथा- 'धारयन्नुत्तरगुणानथूणान्द्रतिको भवेत् / ' टीका-अधूरणान् निरतिचारान् /