________________ 182 समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०७ कैसे किया जा सकता है ? यह एक समस्या खड़ी होती है और इस बातको माननेकी आर अधिक झुकाव होता है कि 'आवर्तत्रितय' पद तीन प्रदक्षिणाओंका द्योतक है, जिनमें एक मनसे, दूसरी वचनसे और तीसरी कायसे सम्बन्ध रखती है तथा तीनों मिलकर त्रियोगकी प्रवृत्तिको पूज्यके अनुकूल बने रहनेके भावको सूचित करती हैं / अस्तु / ___'यथाजातः' पद भी यहाँ विचारणीय है। आम तौर पर जैन परिभाषाके अनुसार इसका अर्थ जन्म-समयकी अवस्था-जैसा नग्न-दिगम्बर होता है; परन्तु आचार्य प्रभाचन्द्रने टीकामें 'बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहचिन्ताव्यावृत्तः' पदके द्वारा इसका अर्थ 'बाह्य तथा अभ्यंतर दोनों प्रकारके परिग्रहोंकी चिन्तासे विमुक्त' बतलाया है और आजकल प्रायः इसीके अनुसार व्यवहार चल रहा है। परिस्थितिवश पं०आशाधरजीने भी इमी अर्थको ग्रहण किया है। ___ इस सामायिक पदमें,सामायिक-शिक्षाव्रतका वह सब आचार शामिल है जो पहले इस ग्रन्थ में बतलाया गया है / वहाँ वह शीलके रूपमें है तो यहाँ उसे स्वतन्त्र व्रतके रूपमें व्यवस्थित समझना चाहिये। प्रोषधाऽनशन-लक्षण पर्वदिनेषु चतुर्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य / प्रोपध-नियम-विधायी प्रणधिपरः प्रोषधाऽनशनः // 140 // 'प्रत्येक मासके चारों ही पर्व-दिनों में--प्रत्येक अष्टमी-चतुर्दशीको ----जो श्रावक, अपनी शक्तिको न छिपाकर, शुभ ध्यानमें रत हुआ एकाग्रताके साथ प्रोषधके नियमका विधान करता अथवा नियमसे प्रोषधोपवास धारण करता है वह 'प्रोषधोपवास' पदका धारक (चतुर्थ श्रावक) होता है। व्याख्या-द्वितीय 'बतिक' पदमें प्रोषधोपवासका निरतिचार विधान, आ गया है तब उसीको पुनः एक अलग पढ़ ( प्रतिमा)