SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारिका ११६] वैयावृत्यमें पूजा-विधान अर्हन्तोंके अनुकूल वर्तनके साँचेमें ढाला है और स्तुति-स्तवनादिके वे बड़े ही प्रेमी थे, उसे आत्मविकासके मार्गमें सहायक समझते थे और इसी दृष्टिसे उसमें संलग्न रहा करते थे-न कि किसीकी प्रसन्नता सम्पादन करने तथा उसके द्वारा अपना कोई लौकिक कार्य साधनेके लिये। वे जल-चन्दन-अक्षतादिसे पूजा न करते हुए भी पूजक थे, उनकी द्रव्यपूजा अपने वचन तथा कायको अन्य व्यापारोंसे हटाकर पूज्यके प्रति प्रणामाञ्जलि तथा स्तुतिपाठादिके रूपमें एकाग्र करने में संनिहित थी। यही प्रायः पुरातनों -अतिप्राचीनों-द्वारा की जानेवाली 'द्रव्यपूजा' का उस समय रूप था; जैसा कि अमितगति आचार्यके निम्न वाक्यसे भी जाना जाता है : वचोविग्रह-संकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । तत्र मानस-संकोची भावपूजा पुरातनैः ॥ -उपासकाचार ऐसी हालतमें स्वामी समन्तभद्रने 'परिचरण' शब्दका जो प्रस्तुत-कारिकामें प्रयोग किया है उसका आशय अधिकांशमें अनुकूल वर्तनके साथ-साथ देवाधिदेवके गुणस्मरणको लिये हुए उनके स्तवनका, ही जान पड़ता है । साथ ही, इतना जान लेना चाहिये कि देवाधिदेवकी पूजा-सेवामें उनके शासनकी भी पूजा-सेवा सम्मिलित हैं। स्तुति: स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सत: । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायसपथे स्तुयान्न त्वा विद्वान्सततमभिपूज्यं नमिजिनम् ॥११६।। यहाँ पहले पद्यमें प्रयुक्त हुअा 'पूजा' शब्द निन्दाका प्रतिपक्षी होने से 'स्तुति' का वाचक है और दूसरे पद्यमें प्रयुक्त हुआ 'स्तुयात्' पद 'अभिपूज्यं' पदके साथमें रहनेसे 'पूजा' अर्थका द्योतक है।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy