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________________ १२२ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०४ भोगोपभोगपरिमाणवत-लक्षण अक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमा गम् । अर्थवतामप्यवधौ राग-रतीनां तनूकृतये ॥१६॥८२॥ _ 'रागोद्रेकसे होनेवाली विषयोंमें आसक्तियोंको कृश करनेघटानेके लिये प्रयोजनीय होते हुए भी इन्द्रिय-विषयोंकी जो अवधिके अन्तर्गत-परिग्रहपरिमाणवत और दिग्वतमें ग्रहण की हुई अवधियोंके भीतर-परिगणना करना है-काल मर्यादाको लिये हुए सेव्याऽसेव्यरूपसे उनकी संख्याका निर्धारित करना हैं-- उसे भोगोपभोग-परिमाण' नामका गुणव्रत कहते हैं। व्याख्या-यहाँ 'अक्षार्थानां' पदके द्वारा परिग्रहीत इंद्रियविषयोंका अभिप्राय स्पर्शन, रमना, घाण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँचों इन्द्रियोंके विषयभूत सभी पदार्थोंसे है, जो असंख्य तथा अनन्त हैं । वे सब दो भागोंमें बँटे हुए है—एक ‘भोगरूप' और दूसरा 'उपभोगरूप', जिन दोनोंका स्वरूप अगली कारिकामें बतलाया गया है। इन दोनों प्रकारके पदार्थोंमेंसे जिस जिस प्रकारके जितने जितने पदार्थोंको इस व्रतका व्रती अपने भोगोपभोगके लिये रखता है वे सेव्य रूपमें परिगणित होते हैं, शेष सब पदार्थ उसके लिये असेव्य होजाते हैं और इस तरह इस व्रतका व्रती अपने अहिंसादि मूलगुणोंमें बहुत बड़ी वृद्धि करनेमें समर्थ हो जाता है । उसकी यह परिगणना रागभावोंको घटाने तथा इन्द्रियविषयोंमें आसक्तिको कम करनेके उद्देश्यसे की जाती है। यह उद्देश्य खास तौरसे ध्यानमें रखने योग्य है । जो लोग इस उद्देश्यको लक्ष्यमें न रखकर लोकदिखावा, गतानुगतिकता, पूजा-प्रतिष्ठा, ख्याति, लाभ आदि किसी दूसरी ही दृष्टिसे सेव्यरूपमें पदार्थोंकी परिगणना करते हैं वे इस व्रतकी कोटिमें नहीं आते।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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