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________________ ངག ལ་ कारिका ८२-८३] भोगोपभोग-लक्षण १२३ यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि इन्द्रियोंके विषयभूत पदार्थोंकी यह परिगणना उन पदार्थोंसे सम्बन्ध नहीं रखती जो परिग्रहपरिमाणव्रत और दिग्वतकी ही सीमाओंके बाहर स्थित है-वे पदार्थ तो उन व्रतोंके द्वारा पहले ही एक प्रकारसे त्याज्य तथा असेव्य हो जाते हैं। अतः उक्त व्रतोंकी सीमाओंके भीतर स्थित पदार्थों में से कुछ पदार्थोंको अपने भोगोपभोगके लिये चुन लेना ही यहाँ विवक्षित है भले ही वे दिग्व्रतमें ग्रहण की हुई क्षेत्र-मर्यादाके बाहर उत्पन्न हुए हों। इसी बातको बतलानेके लिये कारिकामें 'अवधौ' पदका प्रयोग किया गया है। भोगोपभोग-लक्षण भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः । उपभोगोऽशन-वसनप्रभृतिः पाञ्चेन्द्रियोविषयः ॥१७॥८३॥ जो पांचेन्द्रियविपय-पाँचों इन्द्रियोंमेंसे किसीका भी भोग्य पदार्थ-~-एक बार भोगने पर त्याज्य हो जाता है-पुन: उसका सेवन नहीं किया जाता-वह 'भाग' है; जैसे अशनादिक-भोजनपान-विलेपनादिक । और जो पांचेन्द्रिय विषय एक बार भोगने पर पुनः (वार-बार) भोगनेके योग्य रहता है-फिर-फिरसे उसका सेवन किया जाता है-उसे 'उपभोग' कहते हैं; जैसे वसनादिक-वस्त्र, आभरण, शोभा-सजावटका सामान, सिनेमाके पर्दे, गायनके रिकार्ड आदिक ।' व्याख्या-यहाँ कारिकामें भोग तथा उपभोगका लक्षण देकर नमूनेके तौर पर दोनोंका एक-एक उदाहरण दे दिया गया है, शेषका संग्रह 'प्रभृति' शब्दके द्वारा किया गया है जो इत्यादि + 'पंचेन्द्रियोविषयः' इति पाठान्तरम् ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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