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________________ कारिका ८०-८१] अनर्थदण्डव्रतके अतिचार १२१ व्याख्या - यहाँ प्रकट रूपमें आरम्भादिका जो 'विफल' विशेषण दिया गया है वह उसी 'निरर्थक' अर्थका द्योतक है जिसके लिये अनर्थदण्डके लक्षण- प्रतिपादक पद्य ( ७४ ) में 'अपार्थक' शब्दका प्रयोग किया गया है और जो पिछले कुछ पद्योंमें अध्याहृत रूपसे चला आता है । इस पद्य में वह 'अन्तदीपक' के रूप में स्थित है और पिछले विवक्षित पद्योंपर भी अपना प्रकाश रहा है। साथ ही प्रस्तुत पद्यमें इस बातको स्पष्ट कर रहा है कि उक्त आरम्भ, वनस्पतिच्छेद तथा सरण - सारण ( पर्यटनपर्याटन ) जैसे कार्य यदि सार्थक हैं- जैसा कि गृहस्थाश्रमकी आवश्यकताओंको पूरा करनेके लिये प्रायः किये जाते हैं तो वे इस व्रत के व्रत के लिये दोषरूप नहीं हैं । अनर्थदण्डव्रतके प्रतिचार | कंदर्प कौत्कुच्यं मौखर्यमतिप्रसाधनं पंच । असमीच्य चाऽधिकरणं व्यतीतयोऽनर्थदंड कृद्विरतेः। १५।८१ कन्दर्प — काम-विषयक रागकी प्रबलतासे प्रहास-मिश्रित (हँसी ठट्ठे को लिये हुए ) भण्ड ( अशिष्ट ) वचन बोलना-, कौत्कुच्यहँसी-ठट्ठे और भण्ड वचनको साथमें लिये हुए कायकी कुचेष्टा करना, मौखर्य - ढीठपनेकी प्रधानताको लिये हुए बहुत बोलना - बकवाद अतिप्रसाधन-भोगोपभोगकी सामग्रीका श्रावश्यकता से अधिक जुटा लेना --- और असमीक्ष्याऽधिकरण - प्रयोजनका विचार न करके कार्यको अधिकरूपमें कर डालना -: ये पाँच अनर्थदण्डव्रतके अतिचार हैं । ' करना " ( - ब्याख्या – यहाँ 'अतिप्रसाधन' नामका जो अतिचार है वह तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित 'उपभोग - परिभोगानर्थक्य' नामक अतिचारके समकक्ष है और उसका संक्षिप्त पर्याय नाम है ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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