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________________ चतुर्थ अध्ययन गुरणक्तोंके नाम और इस मंज्ञाकी सार्थकता दिग्वतमनर्थदण्डव्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम् । अनुब हणाद्गुणानामाख्यान्ति गुणव्रतान्यार्याः ।।१।६७॥ _ 'आर्यजन-तीर्थकर-गगधरादिक उत्तमपुराए-दिग्वत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाण (व्रत) को 'गुणवत' कहते हैं; क्योंकि ये गुणोंका अनुबृहण करते हैं--पूर्वोन आठ मूलगुगोंकी वृद्धि करते हुए उनमें उत्कर्षता लाते है।' __व्याख्या-यहां 'गुणत्रतानि' पदमें प्रयुक्त हुआ 'गुण' शब्द गुणोंका (शक्तिके अंशोंका) और गौणका वाचक नहीं है. बल्कि गुणकार अथवा वृद्धिका वाचक है, इसी बातको हेतुरूपमें प्रयुक्त हुए 'अनुबहनात्' पढ़के द्वारा सूचित किया गया है । दिग्वत-लक्षण दिग्वलयं परिगणितं कृत्वाऽतोऽहं बहिर्न यास्यामि । इति संकल्पो दिग्वतमामृत्यणुपाप-विनिवत्यै ॥२॥६॥ ‘दिग्वलयको-दशों दिशाओंको-मर्यादित करके जो सूक्ष्म पापकी निवृत्तिके अर्थ मरण-पर्यन्तके लिये यह संकल्प करना है कि 'मैं दिशाओंकी इस मर्यादासे बाहर नहीं जाऊँगा' उसको दिशाओंसे विरतिरूप 'दिव्रत' कहते हैं।' ___ व्याख्या-जिस दिग्वलयको मर्यादित करनेकी बात यहाँ कही गई है वह पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर ऐसे चार दिशाओं तथा अग्नि, नैऋत, वायव्य, ईशान ऐसे चार विदिशाओं और उर्ध्व दिशा एवं अधोदिशाको मिलाकर दश दिशाओंके रूपमें
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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