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________________ ११२ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०४ है, जिनकी मर्यादाओंका कुछ सूचन अगली कारिकामें किया गया है। यहाँ पर इतना और जान लेना चाहिये कि यह मर्यादीकरण किसी अल्पकालकी मर्यादाके लिये नहीं होता, बल्कि यावज्जीवन अथवा मरणपर्यन्त के लिये होता है, इसीसे कारिकामें 'अामति' पदका प्रयोग किया गया है। और इसका उद्देश्य है अवधिके बाहर स्थित क्षेत्रके सम्बन्धमें अशुपापकी विनिवृत्ति अर्थात् स्थूलपापकी ही नहीं बल्कि सूक्ष्म-पापकी भी निवृत्ति । और यह तभी हो सकती है जब उस मर्यादा-बाह्य क्षेत्रमें मनसे वचनसे तथा कायसे गमन नहीं किया जायगा। और इसलिये संकल्प अथवा प्रतिज्ञामें स्थित 'बहिर्न यास्यामि' वाक्य शरीरकी दृष्टिसे ही बाहर न जानेका नहीं बल्कि वचन और मनके द्वारा भी बाहर न जानेका सूचक है, तभी सूक्ष्म-पापकी विनिवृत्ति बन सकती है। दिग्व्रतकी मर्यादाएं मकराकर-सरिदटवी-गिरि-जनपद-योजनानि मर्यादाः । प्राइदिशां दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि ॥३॥६६॥ 'दशों दिशाओंके प्रतिसंहारमें-उनके मर्यादीकरणरूप दिग्व्रतके ग्रहण करनेमें--प्रसिद्ध समुद्र, नदी, अटवी ( वन ), पर्वत, देश-नगर और योजनोंकी गणना, ये मर्यादायें कही जाती हैं।' ___ व्याख्या-दिग्वतका संकल्प करते-कराते समय उसमें इन अथवा इन-जैसी दूसरी लोकप्रसिद्ध मर्यादाओंमेंसे किसी न किसीका स्पष्ट उल्लेख रहना चाहिये । दिन्नतोंसे अगुव्रतोंको महाव्रतत्व अवधेर्वहिरणुपापां-प्रतिविरतदिग्वतानि धारयताम् । पंचमहाव्रतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते ॥४॥७०॥ __+'अरणुपाप' इति पाठान्तरम् ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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